सुबह की डायरी — पतंजलि की ओर


कल की व्यस्तता और भागदौड़ से हुई थकान के बाद रात्री के लगभग बारह बजे नींद ने अपने आगोश में ले लिया था। सुबह 4:10 पर आँख खुली — थोड़ा-सा आलस्य था, पर बड़ी बहन के पंचकर्म हेतु पतंजलि पहुँचना था, सो जागना ही विकल्प था।

पूरब की गैलरी से देखा तो आसमान बादलों से भरा था। दक्षिण-पूर्व में कोई खंजन(Grey wagtail) सुबह का राग आलाप रहा था। उत्तर-पूर्व से कोई सातभैया(Jungle babbler)दो-तीन बार बोला और शायद आलस में फिर सो गया। दक्षिण-पश्चिम से एक कौआ भी आवाज़ दे कर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा था।


गुनगुना पानी और चाय तैयार करने के बाद जब सीढ़ियों से ऊपर गया, तो तेज़ हवा में गमलों के पौधे नाचते-झूमते हुए से लग रहे थे, और बड़े पेड़ की ऊपरी शाखाएँ  ऐसी लगा मानो जागने से पहले चेहरे पर हाथ फेर रही हों। चाँद अभी ऊपर ही था, पर थोड़ी देर में जैसे बादलों की ओट ले शरमा गया। एक तारा भी झिलमिला रहा था, फिर दूसरा भी, और चाँद के साथ मिलकर तीनों ने एक समद्विबाहु त्रिभुज बना लिया। तभी हरिद्वार से रूड़की  की ओर जाती किसी ट्रेन की आवाज़ सुनाई दी — यह मैं डॉपलर प्रभाव से बता पा रहा हूँ।

हवा अब धीमी हो गई थी और एक और तारा निकल आया था, जिससे आकाश में एक  तीर-सा बन गया। यह सब देखते-देखते पाँच बज गए और मैं पतंजलि के लिए निकल पड़ा। बहन ने मना किया था, लेकिन मुझे मालूम है — वह कभी अपनी ज़रूरत के लिए मुझे कष्ट नहीं देना चाहती, इसलिए ऐसा कहती है।

बाइक स्टार्ट करते ही रास्ते में एक घोंघा दिखा। थोड़ा आगे बढ़कर मैंने बाइक रोकी और उस नन्हें निर्दोष को सड़क पार करा दिया। अक्सर वे गाड़ियों के नीचे आ जाते हैं — शायद लोगों की अनावश्यक जल्दबाज़ी में, या शायद उनकी छोटी-सी काया इतनी दिखाई नहीं देती। 

अब पतंजलि पहुँच गया हूँ। बहन का पंचकर्म चल रहा है और यह सब मैं घर आकर दर्ज कर रहा हूँ। दफ़्तर जाने का समय भी हो चला है — करीब 7:50 बज रहे हैं। अब उंगलियों को विराम दे रहा हूँ।

20-08-2025  

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