प्रकृति के मौन अनुबंध — प्रजातियों और प्रकृति के बीच अनकही संधियाँ

 



हम कभी इतने बुद्धिमान नहीं हो सकते कि सब कुछ जान लें, और न ही इतने असंवेदनशील कि प्रकृति की उदारता को न पहचानें।

हम कभी सच में नहीं जान पाएंगे कि कितने हाथों ने हमें सहारा दिया है—दिखाई देते हुए या अदृश्य—क्योंकि अनेक उदार आत्माएं अपनी उदारता को परोक्ष रखना ही पसंद करती हैं। जब भी हमें किसी की सहायता करने का अवसर मिले, हमें इसे धन्यवाद कहने का ही एक तरीका मानना चाहिए—न केवल उस व्यक्ति को, बल्कि उन सभी अदृश्य हांथों को, जिन्होंने कभी हमारी मदद की थी।

यह कृतज्ञता केवल इस जीवन में मिले लोगों तक सीमित नहीं होनी चाहिए। जैसा कि वेदान्त (भगवद गीता, अध्याय 2, श्लोक 27: "जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च") और  जीन-पॉल सार्त्र भी  कहते हैं—मृत्यु हमारे जीवन का हमारे शरीर से परे विस्तार है। हम सच में कभी नहीं जान सकते कि कितनी आत्माएँ—विभिन्न प्रजातियों में, विभिन्न जन्मों में—हमारी इस अनवरत यात्रा में सहायक रही हैं। आज भी हम उन अनगिनत तरीकों से अनभिज्ञ हैं, जिनसे अन्य जीव-जन्तु चुपचाप हमारे जीवन को सम्भालते हैं।

मनुष्य का अपने विकास के चरम पर पहुँचना ईश्वर, प्रकृति या स्वाभाविक विकास का वरदान अथवा संयोग हो सकता है; किन्तु यह स्थिति, विकास के पायदान पर खड़े अन्य निचले जीवों के प्रति संवेदना की जिम्मेदारी भी साथ लाती है।

किसी की अन्य जीवों के प्रति संवेदना के मूल में यह बोध और अपराध-बोध भी हो सकता है कि इस विकास का लाभ मनुष्य जाति को मिला, परन्तु इसकी कीमत अन्य सभी जीवों ने चुकाई है।

यह एक अत्यंत व्यक्तिगत और लगभग अपरिवर्तनीय अनुभूति हो सकती है। इसमें सहमति अनिवार्य नहीं, किंतु इसे व्यक्तिगत दृष्टिकोण मानकर इस वैचारिक भिन्नता की एक सहिष्णु स्वीकृति की आशा मनुष्यों से अवश्य की जा सकती है। यह एक मुक्त अनुभूति है—किसी संदर्भ विशेष की अनुवर्ती प्रतिक्रिया नहीं।

हमारा अस्तित्व—और जिसे हम अन्य प्रजातियों पर अपनी “श्रेष्ठता” कहते हैं—उन पर गहराई से निर्भर है। फिर भी हम अक्सर उनके महत्व को नज़रअंदाज़ कर देते हैं। वे हमसे जो कुछ लेते हैं, वह उस अपार ऋण की तुलना में कुछ भी नहीं है।

इतिहास का महत्त्व भी तभी है जब हम उससे कुछ सीख लेते हैं। 1950 के दशक के उत्तरार्ध में चीन ने “महान छलांग” के नाम पर सभी गौरैयों को मारने का निर्णय लिया, यह मानकर कि प्रत्येक गौरैया साल में लगभग चार किलो अनाज खाती है। इसका परिणाम विनाशकारी हुआ—मानव इतिहास का सबसे बड़ा अकाल पड़ा, जिसमें लगभग 4.5 करोड़ लोग मारे गए। इसी तरह 1860 में पेरिस ने कुत्तों और बिल्लियों का सामूहिक संहार किया। परिणाम समृद्धि नहीं, बल्कि प्लेग और भारी जनहानि था।

मैं दिल्ली-एनसीआर में कुत्तों को लेकर सुप्रीम कोर्ट के हालिया आदेश पर टिप्पणी करने का अधिकार नहीं रखता। माननीय न्यायमूर्ति मानव-निर्मित कानूनों के विशेषज्ञ हैं, पर प्रकृति के नियमों के नहीं। कुत्ते मनुष्य के मित्र तब से हैं, जब मनुष्य ने भाषा तक नहीं सीखी थी—और शायद तब तक रहेंगे, जब हम फिर बिना शब्दों के संवाद करना सीख जाएंगे। वे हज़ारों वर्षों से प्रकृति के नियमों के तहत जीवित हैं—किसी कारण से, जिसे हम अपनी सीमित बुद्धि से पूरी तरह नहीं समझ पाते।

हमने सबसे उन्नत संचार उपकरण बना लिए हैं, परंतु अन्य प्रजातियों के साथ मित्रवत संवाद की अपनी सहज कला खो बैठे हैं। मैं चाहता हूँ कि इन नि:शब्द मित्रों के साथ सावधानी और करुणा से व्यवहार किया जाए—क्योंकि शायद निकट भविष्य में हमें उनकी आवश्यकता केवल स्नेह के लिए नहीं, बल्कि अपने सिर्फ़ जीवित रहने के लिए भी पड़ सकती है और मैं फिर से दुहराना  चाहूंगा केवल जीवित रहने के लिए

मुझे उन श्वानों की चिंता नहीं है; अगर वे मर भी गए तो किसी बेहतर जीव योनि में उनकी मोक्ष यात्रा चलती रहेगी।

भगवद गीता, अध्याय 2, श्लोक 27: "जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च, तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि" -

जो जन्मा है, उसकी मृत्यु निश्चित है, और जो मरा है, उसका जन्म निश्चित है। इसलिए, जो अटल है, उसके लिए शोक करना उचित नहीं है।

 चिंता है तो दिल्ली के लोगों की—और उस पीड़ा की, जिसे वे अगले दो-तीन वर्षों में अनजाने ही अपने जीवन में बुला सकते हैं।

प्रकृति के नियम मानव-निर्मित कानूनों से कहीं अधिक प्राचीन, कठोर और निर्मम हैं। कृतज्ञ रहिए—क्योंकि हमारा अस्तित्व केवल हम पर नहीं, बल्कि उस विशाल, कोमल और अदृश्य जीवन-श्रंखला पर निर्भर है, जो हमें थामे हुए है।

अंत में, उन सभी के प्रति गहरी संवेदना के साथ जिन्होंने कुत्तों के हमलों का सामना किया है — प्रकृति का संतुलन बनाए रखना और सभी प्रजातियों का सम्मान करना निस्संदेह महत्वपूर्ण है, किंतु हमारे बच्चों की सुरक्षा से कभी समझौता नहीं किया जा सकता। किसी भी अभिभावक को यह भय नहीं होना चाहिए कि उनका बच्चा बाहर खेलने जाए तो उसकी सुरक्षा खतरे में होगी। असली चुनौती ऐसे समाधान खोजने में है, जो जीवन की रक्षा करें और मनुष्य तथा पशुओं के प्राकृतिक अधिकारों के बीच एक न्यायपूर्ण संतुलन स्थापित करें।

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