प्राचीन सनातन भारतीय दर्शन और इसकी प्रासंगिकता


सच कहूं तो वेदांत या भारतीय दर्शन पर कुछ बोलने या लिखने के लिए मैं अपने आप को बड़ा अनुभवहीन और छोटा पाता हूँ, मगर जो कुछ भी थोडा बहुत समझ पाया हूँ ,उसके आधार पर मैं यह कह सकता हूँ कि दर्शन का शाब्दिक अर्थ देखना या खोजना है| प्राचीन भारतीय ज्ञान या दर्शन  स्वयं और ब्रह्म की खोज और उसके अंतर्संबंध के बोध का साधन है | बात अगर स्वयं के दर्शन की हो तो वेद ,पुराण ,उपनिषद एक दर्पण हैं और जो भी हम इसमें देखेंगे वह सापेक्ष होगा और चूँकि हर व्यक्ति अलग है तो उसका दर्शन भी अलग ही होगा|

प्राचीन भारतीय ज्ञान या दर्शन की सभी व्याख्याएं तर्कसंगत, सापेक्ष और एक दुसरे से एकदम पृथक हो सकती हैं लेकिन इसकी एक सार्वभौमिक और पूर्ण व्याख्या नहीं हो सकती| सार्वभौमिक से यहाँ तात्पर्य ऐसी व्याख्या से है जो सबके लिए एक हो और स्थिर हो । वेदांत दर्शन में जड़ता के लिए कोई जगह नहीं है। यह तो बड़ी ही गतिशील (dynamic) और प्रगतिशील (progressive) विषयवस्तु है | इसी को ऋग्वेद में "एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति " (1.164.46) इसका शाब्दिक अर्थ है "सत्य एक है, ज्ञानी इसे अलग तरह से अनुभव करता है" या ईश्वर एक है, प्रबुद्ध या ज्ञानी, उसे विभिन्न नामों से पुकारते हैं या उसे अलग तरह से अनुभव करते हैं। 

ऋग्वेद में ही एक जगह यह भी लिखतें हैं कि,

 मनुर्भव: - अर्थात आदमी बनो! मगर हर आदमी के तरीके पृथक हो सकें हैं। वेदों में कर्मकांड भी है,उपनिषद भाग में ज्ञान और ब्रह्मज्ञान है, पुराणों  में सहज सुबोध कहानियां भी हैं हर बौद्धिक  अभिरुचि और समझ का व्यक्ति अपने लिए उपयुक्त मार्ग  ले सकता है हाँ उस मार्ग की पहचान के लिए वेदों में क़ुछ वेदवाक्य सहायक हो सकते हैं | 

ऋग्वेद :-

1 . "स्वस्ति पन्थामनुचरेम । "(5.51.15) कल्याण मार्ग का अनुसरण करें | 

2 . उप सर्प मातरं भूमिम् । (10.18.10) सेवा करें मातृभूमि की ।
3 . सं गच्छध्वम् सं वदध्वम् । (10.181.2) साथ चलें मिलकर बोलें ।

यजुर्वेद : 

1. सुमना भव । अच्छे मन वाले बनें | 

2 . ऋतस्य पथा प्रेत । (7.45) धर्म के मार्ग पर चलें ।

3 . भद्रं कर्णेभिः श्रृणुयाम । (25.11) मंगलकारी वचन कानों से सुनें ।

4 . तन्मे मनः शिव संकल्पमस्तु । (34.1) यह मेरा मन शिव संकल्प युक्त हो ।

यहाँ  शिव एक  विचारधारा हैं, न की एक शिवलिंग मात्र |  इस पे अगर विस्तार से चर्चा करें तो यजुर्वेद संहिता का का मंत्र "तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु "अर्थात मेरे मन का संकल्प शिव हो,शुभ हो,कल्याणकारी हो। अर्थात शिव मन के शुभ विचारों ,एकाग्रता ,प्रसन्नता के अधिष्ठाता हैं संकल्पों के  प्रतीक हैं। शिव के तत्व दर्शन को जो समझ जाता है जो उनके आदर्शों को अपने जीवन में उतार लेता है वह आत्मोन्नति कर लक्ष्य पर पहुँच जाता है। शंकर सृजन से संहार तक जीवन से मृत्यु तक जीवन का विस्तारित प्रकाश हैं। शिव प्रकृति को प्राण देने वाली ऊर्जा है। शिव ने स्वयं को छोड़ कर सबको चाहा है। शिव आत्मबलिदानी हैं| शिव सत्य की किरण  है जो अनादि अंधकारों की चीरती हुई हमारे हृदयस्थल को ज्ञान के अलोकों से प्रकाशित करती है।

सभी देवता किसी न किसी परिधि में बंधे हुए हैं कुछ व्यक्तिगत स्वार्थ में कुछ लिप्सा कुछ अधिकारों में कुछ अहंकारों में लेकिन शिव ही सर्वमुक्त हैं ,अकिंचन हैं। अमृत छोड़ कर विष का पान शिव सामर्थ्य ही कर सकता है। रत्नों को छोड़ कर विषधारी नागों को सिर्फ शिव ही धारण कर सकते हैं। शिव राम के भी पूज्य हैं रावण के भी। शिव देवताओं से सम्मानित हैं तो असुरों के अधिष्ठाता हैं। शिव अनादि काल से अच्छाइयों एवं बुराइयों के बीच के सेतु रहे हैं। जहाँ एक तरफ परम शांति एवं शीतलता के प्रतीक चन्द्र को धारण करते हैं तो दूसरी ओर महा विनाशक विष को भी अपने कंठ में छुपाये हुए हैं ताकि मानवता का विनाश न हो। वो सौम्य से सौम्यतर भयंकर से भी महा भयंकर रौद्र रूप धारी हैं।

आज के परिवेश में जहां मनुष्य अपने चरित्र ,वाणी ,कर्म एवं संस्कारों को खो चुका है। अपनी शक्तियों का प्रयोग मानवता को विनिष्ट करने में कर रहा है शिव का चरित्र उसको सही दिशा दिखने के लिए सर्वथा प्रासंगिक है। शिव का चरित्र निजी सुख एवं भोगों से दूर उत्तरदायित्व का चरित्र है जो मनुष्य के लिए ही नहीं बल्कि देवताओं के लिए भी अनुकरणीय है। शिव का परिग्रह रूप शिक्षा देता है की शक्ति का प्रयोग धन वैभव एवं भोग सामग्रियों को जुटाने में नहीं वरन शोषित एवं दीनों की सेवा करने में होना चाहिए।

5 . मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे । (36.18) मित्र की दृष्टि से सर्वत्र देखें ।
6 . मा गृधा कस्य स्विद धनम् । (40.1) मत लालच करें किसी अन्य के धन का ।


सामवेद :
1 . जीवा ज्योतिरशीमहि । (259) सभी जीव परम प्रकाश को प्राप्त करें ।
2 . यज्ञस्य ज्योतिः प्रियं मधु पवते । (15) यज्ञ की ज्योति प्रिय मधुर भाव उत्पन्न करती है । 

यहां यज्ञ  शब्द को थोड़ा विस्तार में समझते हैं | 

यज्ञ या यज्ञ (संस्कृत: यज्ञ) का शाब्दिक अर्थ है "बलिदान, भक्ति, पूजा, प्रसाद", और हिंदू धर्म में पवित्र अग्नि के सामने किए जाने वाले किसी भी अनुष्ठान के लिए संदर्भित करता है, अक्सर मंत्रों के साथ। यज्ञ की अग्नि इच्छाओं और कर्म के बीज को जलाने का प्रतिनिधित्व करती है, हमें ब्रह्म के साथ पुनर्मिलन के लिए स्वतंत्र करती है। 


अथर्ववेद : 

1.  मानवो मानवम् पातु - मनुष्य मनुष्य को पाले ।

2. माता भूमिः पुत्रोSहम् पृथिव्याः । माता भूमि हैं ,पुत्र हैं  हम पृथ्वी के ।

3 . मधुमतीं वाचमुदेयम । (16.2.2) मैं मीठी वाणी बोलूँ ।

इन सब निर्देषों के बाद भी पथ के चयन की स्वतंत्रता  हमारे पास ही है | इस सन्दर्भ में भगवत गीता का उल्लेख  करना अपरिहार्य हो जाता है | आत्मज्ञान या ब्रह्मज्ञान के लिए गीता चार अलग-अलग रास्तों को स्पष्ट करती है:

1. राजयोग या ध्यान,

2. कर्म योग या काम,

3.  ज्ञान योग या ज्ञान और 

4. भक्ति योग या भक्ति 

इनमें से कोई एक  आकांक्षी अपने स्वभाव, क्षमता और झुकाव के अनुसार चुन सकता है । भगवद्गीता का ज्ञान  अद्वितीय है क्योंकि यह हठधर्मिता से मुक्त है। सबसे गोपनीय आध्यात्मिक ज्ञान समझाने के बाद भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि मैंने तुमको जो यह ज्ञान दिया है वह सभी रहस्यों से अधिक गुप्त है। इस पर गहराई से विचार करो , और फिर जैसी तुम्हारी इच्छा वैसा करो।    

इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया |

विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु || 18. 63 ||

 (Thus, I have explained to you this knowledge that is more secret than all secrets. Ponder over it deeply, and then do as you wish.)

संक्षेप में गीता व्यक्ति की स्वतंत्रता को पहचानती है और साधक के हाथों में परम विकल्प छोड़ देती है। उदार और बिना भेदभाव के, भगवद्गीता हमें जीवन की अशांति से उतना ही तर्कसंगत तरीके से निपटने में मदद करता है जितना मानवीय रूप से संभव है ।

सनातन परंपरा में जब एक बालक उपनयन के बाद शिक्षा के लिए गुरु के पास जाता है , और उसकी जिज्ञासा होती है तो गुरु से पूछता है -- " अथातो ब्रह्मजिज्ञासा " , अर्थात गुरुवर मुझे ब्रह्म को जानने के बारे में जिज्ञासा है / तो गुरु उसको विद्या, अध्ययन, तप, शील, ज्ञान, गुण और धर्म की शिक्षा देते हैं / लेकिन शिष्य कहता है कि _" गुरुवर अब तो मेरे जिज्ञासा शांत कीजिए " /

तब गुरु एक दिन कहते हैं - तद त्वं असि / जिसकी खोज में तुम जिज्ञासु और आतुर हो वो तुम्हारे भीतर ही है , यानी वो ब्रह्म तुम्ही हो / और फिर उसको ब्रह्मत्व की प्राप्ति का मार्ग बताते है - यम नियम तप योग इत्यादि | 

और एक समय जब वो शिष्य जगत के सत और मिथ्या का ज्ञान प्राप्त कर समदर्शी ब्रह्मत्व को प्राप्त कर लेता है तो वो कहता है कि - " अहं ब्रह्मास्मि  "| 

 

अहं ब्रह्मास्मि महावाक्य का शाब्दिक अर्थ है मैं ब्रह्म हूँयहाँ 'अस्मिशब्द से ब्रह्म और जीव की एकता का बोध होता है। जब जीव परमात्मा का अनुभव कर लेता हैतब वह उसी का रूप हो जाता है। सूफ़ी परंपरा में अनलहक़ कहा जाता हैजिसका अर्थ है ‘मैं  सत्य हूं’। सूफी साधक जब साधना के अंतिम सोपान में ‘द्वित्व ’ को ख़त्म करता हैतो वह स्वयं ही सत्य या ब्रह्म या ख़ुदा  हो जाता है। सूफ़ी साधना पद्धतियों में भी एक होना केंद्रीय विचार है।





नीओ-प्लेटोनिज्म  (Neoplatonism)
में जिसे पहला सिद्धांत कहा जाता हैवह इतना सरल है कि उसे सिर्फ़ ‘एक’ कहा जाता है। प्लूटो के अनुसार ‘एक’ ही सारी स्थूल भौतिकता का कारण हैजो प्रत्यक्ष रूप से छांदोग्य उपनिषद के ‘एकं एवद्वितीय ब्रह्म’ के अर्थ के समकक्ष है।


बौद्ध धर्म के महायान संप्रदाय के मध्यमक उपसंप्रदाय में परमार्थ तत्व यानी परम सत्य को एक मात्र ‘शून्य’ माना गया है और जगत इसी शून्यता का स्थूल प्रकट रूप है। शून्यता का सिद्धांत वेदांत के पूर्णता के सिद्धांत के साथ साम्य रखता है। पूर्ण से पूर्ण के पृथक होने पर भी पूर्ण ही शेष रहता है। यहां पूर्ण की जगह शून्य रखकर भी पढ़ा जा सकता है।

वेदांत एक मास्टर key है लेकिन हम सब के ताले अलग-अलग हैं यानि वेदांत का दर्शन तो ध्रुव है मगर उसका उपयोग सापेक्ष ! "एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति " | 

अब अंत  में मैं एक बार फिर कहूंगा कि वेदांत या भारतीय दर्शन पर कुछ बोलने या लिखने के लिए अपने आप को बड़ा अनुभवहीन और छोटा पाता हूँ जो भी मुझे अपनी वर्तमान मनःस्थिति में प्रासंगिक लगा वो मैं आज साझा कर रहा हूँ | आखिर में बौद्ध दर्शन के एक सूत्र वाक्य से अपनी बात ख़त्म करूंगा जो हम सब पे लागू होती है या सार्वभौमिक है "अप्प दीपो भवः"-अर्थात अपना प्रकाश स्वयं बनिए ।

अगर सच कहूँ तो ज्ञान तो अनुभूति का विषय है अनुभूति से इसकी पूर्णता होती है और व्यवहार में लाकर यह संपन्न होता है अन्यथा तो वेद, उपनिषद , गीता, पुराण, कुरान, बाइबल और अन्य पुस्तकें सब बुद्धि का व्यायाम मात्र  रह जाती हैं | मैंने भी कुछ अध्यन किया और जो समझ आया वो बड़ी विनम्रता और अपनी अविद्या और अज्ञान की स्वीकृति के साथ साझा कर रहा हूँ कुछ त्रुटियाँ हुईं होंगी क्षमा कीजियेगा और समय मिले तो प्राचीन भारतीय दर्शन की जो भी आपकी समझ हो, अपने कमैंट्स या मेसेज से हमसे ज़रूर share कीजियेगा |

"अप्प दीपो भवः"

असतो मा सद्गमय/तमसो मा ज्योतिर्गमय/मृत्यो: मा अमृतं गमय/ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः 

                                                                आपका स्नेहाकांक्षी अभय |


Comments

  1. अभय आपका यह पोस्ट पढ़कर बहुत सुख की अनुभूति हुई। यहां बड़ी ही सरलता से आपने उन युक्तियों को लिए एवं उनको संच्छेप में प्रस्तुत किया है। यह बोहोत ही उल्लेखनीय कार्य है।
    इसी कड़ी में आशा करूंगा आप एक लेख वेद और वेदांत के ऊपर भी लिखे।
    हम्म दीपो अभय भव:।

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  2. आपके उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद । वेदांत दर्शन पर भी अलग से लिखने कि कोशिश करूंगा सर।

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  3. अद्भुत भाई ।

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