तुम अच्छी , मैं ठीक- ठाक ।

मैं किसी से, या कोई मुझसे,
पूछता है— "और कैसे हो?"
तो एक सहज उद्गार होता है—
"ठीक हूँ।"

क्योंकि "कैसे हो?" प्रश्न नहीं,
एक औपचारिक अभिवादन-सा होता है,
सो "ठीक हूँ" भी
सिर्फ़ एक सहज, अभिव्यक्ति भर होती है,
बिल्कुल सटीक, उत्तर न होकर।

अब हम सभी, निर्द्वंद्व, 
स्वीकार भी लेते हैं इसे,
एक जवाब के मानिंद।


जब तुम पूछती हो— "कैसी लग रही हूँ?"

और मैं कहता हूँ—

"तुम अच्छी लगती हो।"

और तुम्हें लगता है,

यह भी कोई गढ़ी-बनाई सी बात है।

पर मैं कैसे बताऊँ कि—

इस पतझड़ के ठूँठे पेड़ पर ,

खिला, पहला फूल हो तुम।

और पुष्प  पूर्ण होते हैं, स्वयं में,

भला पुष्प को भी श्रृंगार की,

आवश्यकता होती है.. क्या ?


तुम मुझे अच्छी लगती हो,

जैसी की तैसी,

पूर्ण प्रेम-सी।

यह सटीक उत्तर होता है—

जैसा मैं देख पाता हूँ,

बिल्कुल वैसा।

किसी औपचारिक अभिवादन की

प्रतिअभिव्यक्ति मात्र, तो बिल्कुल भी नहीं।

खैर छोड़ो,

कुछ बातें,

कुछ अहसास,

और इत्र—

भीने होते हैं,

अनुभूतियों में स्थित,

पर शब्दों से परे।


कुछ कस्तूरी सा है भीतर, 

कहीं दिखता भी नहीं, 

कमबख्त !

 छिपाए,  छिपता भी नहीं।......


जितना शब्द हो कोई अर्थ बिन,

 कोयल कोई, शब्द बिन,

तितली कोई ,रंग बिन ,

और रंग कोई प्रकाश बिन,

उतना ही तुम बिन अपूर्ण, ......

उतना ही तुम बिन अपूर्ण, ......



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