ढाई आखर प्रेम के – प्रेम की परिभाषा – भाग 1 (नेति - नेति से पूर्णता तक)

अनाहत चक्र — जिसे हृदय चक्र भी कहा जाता है — हमारे शरीर के सात चक्रों में से चौथा चक्र है। यह चक्र न केवल शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ा है, बल्कि आत्मिक और भावनात्मक संतुलन का भी मूल आधार है lप्रेम, करुणा, क्षमा, स्वीकृति और संतुलन — ये सभी अनाहत चक्र के दिव्य गुण हैं l


प्रेम की परिभाषा क्या है?
 प्रेम की ना तो कोई परिधि होती है और ना ही कोई भाषा सो , परिभाषा की परिधि में बाँधने के लिए यह  बड़ा कठिन विषय है, किन्तु समझने या अनुभव के धरातल पर यह एक सूक्ष्म अनुभूति है। तभी शायद कबीर भी कहते हैं —

"पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।"

यह आलेख लिखने की प्रेरणा  एक वरिष्ठ मित्र के अमेरिका में किसी आध्यात्मिक व्याख्यान के दौरान, एक श्रोता के प्रश्न "प्रेम की परिभाषा क्या है?" से मिली है। 

मित्र ने यह प्रश्न साझा करके विचारों के सागर में यह मोती डाल दिया, और यह आलेख उससे उठी विचारों की तरंगित धाराएं हैं।

यूँ तो प्रेम की कोई परिभाषा नहीं होती, न कोई लिपि, न कोई भाषा। प्रेम तो इन सबसे मुक्त और इनकी सीमाओं से परे भाव की विषयवस्तु है — या यूँ कहें कि, प्रेम स्वभाव की विषयवस्तु है, न कि परिभाषा की।

प्रेम संवेदनापूर्ण होते हुए  भी अनासक्त है; 

प्रेम डूबना है, मगर भीगना नहीं।वैसे जैसे कमल और पानी का प्रेम।

प्रेम  बंधनों से मुक्ति है — स्वयं कोई बंधन नहीं, 

प्रेम निरपेक्ष भाव है, और उसकी व्यवहारगत कर्म में परिणति है, न कि कोई सापेक्ष प्रतिकर्म या प्रतिक्रिया। 

प्रेम हमारे अंतस का भाव है, न कि कोई बाह्य प्रतिभाव या प्रतिक्रिया।

वृहदारण्यक उपनिषद् में अद्वैत का एक सिद्धांत हैं:

"नेति नेति। न ह्येतस्मादिति नेत्यन्यत् पश्यति।"

अर्थात — यह भी नहीं, वह भी नहीं। जो कुछ भी देखा, सुना, जाना जा सकता है — वह ब्रह्म नहीं है। ब्रह्म अनुभव से जाना जाता है, तर्क और परिभाषा से नहीं।

ब्रह्म परमप्रेम स्वरूप है, और प्रेम ही परब्रह्म स्वरूप भी है।अब अगर इसी श्लोक को प्रेम के सन्दर्भ में रूपांतरित कर दें  तो:

प्रेम नेति नेति — न रूपे, न नामनि, न गन्धे, न शब्दे। यः प्रेम आत्मस्वरूपे व्याप्य स्थितः, स एव ब्रह्म।

प्रेम 'नेति नेति' के पार जाता है — वह न रूप में है, न नाम में, न किसी गन्ध या शब्द में।जो प्रेम आत्मा के स्वरूप में व्याप्त होकर स्थित है — वही ब्रह्म भी है।

केवल प्राणिविशेष के लिए नहीं, प्राणिमात्र के लिए प्रेम की अनुभूति ही ब्रह्म का साक्षात्कार होगा।
प्रेम से इतर कुछ न होकर प्रेममय होना ही ब्रह्ममय होना होगा — या प्रेमलीन होना ही ब्रह्मलीन होना भी। 

प्रेम व्यक्ति की विशिष्टि नहीं बल्कि व्यक्ति में ही सृष्टि की समष्टि का प्रारम्भ है और व्यक्ति का  चरम प्रारब्ध भी। इसे थोड़ा और समझते हैं। शुक्ल यजुर्वेद के शिवसंकल्पसूक्त से —

"तन्मे मनः शिवसङ्कल्पम भवतु" — अर्थात 
“तुम्हारा मन शिव अर्थात सबके लिए कल्याणकारी हो।”

शिव भाव ही  पूर्ण प्रेम भी है। प्रेम के अर्थों में अगर यह श्लोक लिखूँ तो:

"तन्मे मनः प्रेमसङ्कल्पम भवतु"
वह मेरा मन प्रेममय संकल्पों वाला हो।

अर्थात, जैसे "शिव संकल्प" शुभ, कल्याणकारी, सत्य और दिव्यता की ओर ले जाने वाला  हैं — वैसे ही "प्रेम संकल्प" का अर्थ है — एक ऐसा मन, जो हर सोच, हर प्रतिक्रिया, हर क्रिया में सम्पूर्ण सृष्टि के लिए  प्रेम से पूर्ण  हो, जो न भेद करे, न द्वेष, न भय।

ऐसे ही शिव या ब्रह्म की व्याख्या में मुझे ऐसा कुछ नहीं दिखता जहाँ प्रेम सार्थकता न दे सके।
बस, एक प्रेम के दर्शन  से देखने और समझने की आवश्यकता है।

प्रेम — शून्यत्व में पूर्णता भी है, और पूर्णता में शून्यता भी।इसी सन्दर्भ में बृहदारण्यक उपनिषद् / ईशावास्य उपनिषद् से शांति मंत्र को देखें:

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥

अर्थात —
वह (परब्रह्म) पूर्ण है, यह (जगत) भी पूर्ण है।
पूर्ण से पूर्ण की उत्पत्ति होती है।
पूर्ण का पूर्णत्व लेने पर भी पूर्ण ही शेष रहता है।
ॐ शांति, शांति, शांति।

यह श्लोक भी प्रेम के साथ बड़ा सार्थक हो जाता है:

ॐ प्रेम।
पूर्णमदः पूर्णमिदं —
पूर्णात् प्रेमपूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य प्रेमपूर्णमादाय —
पूर्णप्रेममेवावशिष्यते॥
ॐ शान्तिः। प्रेम... प्रेम... प्रेम... शान्तिः॥

वह प्रेमपूर्ण है, यह भी प्रेमपूर्ण है।

जिसे हम ईश्वर कहते हैं, वह केवल शक्ति या चेतना नहीं — वह प्रेम का अगाध और अनन्त सागर है।यह सृष्टि, यह जीवन, यह प्रत्येक स्पंदन — उसी दिव्य पूर्ण प्रेम से प्रकट हुआ है।जो भी रूप है, जो भी संबंध है, जो भी अनुभूति है — वह उसी प्रेम की अभिव्यक्ति है।उस पूर्ण प्रेम से जब यह प्रेमपूर्ण सृष्टि भी प्रकट होती है, तब भी जो शेष रहता है — वह केवल पूर्णप्रेम ही होता है।क्योंकि प्रेम कोई स्थूल वस्तु नहीं, जिसे घटाया या बढ़ाया जा सके; वह तो अति सूक्ष्म भाव है —

एक ऐसी मौन तरंग, जो संपूर्ण अस्तित्व की मौलिक ऊर्जा बनकर व्याप्त है —एक नाद, जो हर जीवित और अजीव तत्व में निरंतर प्रतिध्वनित हो रहा है।

प्रेम को समझा नहीं जा सकता — केवल जिया जा सकता है।शब्द जहाँ खो जाते हैं, वहीं से प्रेम की अनुभूति प्रारंभ होती है।





Comments

Popular posts from this blog

प्राचीन सनातन भारतीय दर्शन और इसकी प्रासंगिकता

नारी

तुम अच्छी , मैं ठीक- ठाक ।