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जीवन -प्रकृति के संवाद में

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जाने क्यूं लगता है जैसे,  कोई था जो सर्वत्र था । जब आसक्ति हुई तो उसे , अग्नि का अग्निहोत्र किया।  जब ठहराव की वृति हुई तो उसे,  नदी का प्रवाह किया।  किंकर्तव्यविमूढ़ता छाई तो,  पवन से संवाद किया। हृदय ने मुमूर्षा का अंगीकार किया तो,  वसुधा से जिजीविषा का व्यवहार लिया। जीवन के संघर्षों में जब धैर्य चुका तो ,  बीजों से संयम का संचार हुआ।  निराशा और अक्षमताओं के तमस में,  असंख्य तारों ने उम्मीद भरी।  दिल छोटा हुआ जब कभी तो,  चंद्रमा की पुनरावृति ने आशा दी।  जब रास्ते खोने लगे तब,  पर्वतों ने कदमों में स्थिरता का संचार किया।  जाने क्यूं लगता है जैसे,  कोई था जो सर्वत्र था उसके लिए।

मृगतृष्णा

एक  ठेस लगी ,  कोई टीस जगी , कुछ स्वप्न टूटे , एक मोह छूटा । प्रछन्न अंतस के आनन पर, मृगतृष्णा से , कुछ स्वप्न जगे। फिर मोह हुआ, एक जोग लगा, एक होड़ लगी,  एक दौड़ हुई , वो भी सब के , संग दौड़ पड़ा । आनंद  था ,  सफलता मे , या आनंद ही  सफलता  थी ? ना  ये सब  कुछ सोच सका, उस जल्दी मे , बस दौड़ गया । सब पाने - करने  की चाहत में , जाने कितना कुछ छुट रहा , कुछ सपनों को बुनने में , जाने कितना कुछ टूट गया ? घर का आंगन ,आँगन की तुलसी, छप्पर की गौरैया,गौशाले की गाय, सब काफी पहले ही छूट गए। कभी ठहरें तो ,ये सोचेंगे कि,  क्या खोया क्या  पाया है ? सब था यथार्थ या बस माया थी?

घर और दफ्तर

थकता है और थक कर सो जाता है वो हर दिन, बिस्तर से उठ कर हर रोज़ अपने दफ्तर जाता है। मंज़िल और उसका रास्ता मालूम है उसे, मगर, पत्थरों से राह के, सफ़र में थोड़ा बिखर जाता है। थोड़े बिखराव को पूरा समेटकर अगली सुबह, कुछ और निखरता है, फिर उसी शहर जाता है। नित कुछ पुरातन, कुछ नवीन होता है,  प्राचीन होने की इस स्वाभाविक यात्रा में, सयास हर बार कुछ और अर्वाचीन होता है। निरर्थक लगती इस रोजमर्रा की पुनरावृति में भी, वो कुछ और सार्थक, कुछ और समीचीन होता है। "Born free to roam the wild, Chained by screens and tech so mild. The woods call, but whispers sway, And here I stay, Resetting passwords every day."

वक्त , प्रेम और विज्ञान

लोग कहते हैं, वक्त कभी किसी का इंतजार नहीं करता। लेकिन वक्त थम भी जाता है, कभी-कभी पीछे भी भाग जाता है अतीत की स्मृतियों में और यूं ही कभी छलांग लगाकर आगे भी भाग जाता है भविष्य की कल्पनाओं में, मन के मनचले रथ पे सवार हो के। ये बड़ी सार्वभौमिक और स्वाभाविक, किंतु विरोधाभाषी घटना हो जाती है, जब हम मान लेते हैं कि वक्त किसी के लिए नहीं रुकता। फिर मुझे बाबा आइंस्टीन और संत रदरफोर्ड के क्वॉन्टम फिजिक्स की याद आती है कि शायद ये सब उन्होंने पहले ही देख लिया अपनी वेव-पार्टिकल ड्यूलिटी के सिद्धांतों में। जीवन केवल घड़ी की टिक-टिक नहीं है; यह हमारे अनुभवों, स्मृतियों और कल्पनाओं की तरंगों का अनवरत प्रवाह है। प्रेम और विज्ञान, दोनों ही अपने चरम पर पहुँचकर शब्दों की सीमा को लांघ जाते हैं। प्रेम आंखों की भाषा बन जाता है। वह आंखों, स्पर्श, और मौन में स्वयं को प्रकट करता है। वहीं, विज्ञान अपने गहनतम स्तर पर सिर्फ गणितीय समीकरणों के माध्यम से अभिव्यक्त होता है।

प्रसन्नता (हँसी, खुशी, हर्ष और आनंद)

प्रसन्नता  प्रसन्नता एक अनवरत खोज है। हंसी, ख़ुशी, हर्ष से होते हुए, आनंद की अवस्था तक आने की एक सार्थक जीवन यात्रा । हंसी इसकी आहट है, खुशी इसकी दस्तक  हर्ष इसका आगमन और आनंद इसका धाम। हंसी की क्षणिका में अनायास सहजता है, खुशी की कविता में उपलब्धि का संतोष। हर्ष की कहानी में  उत्साह और उमंग है, तो आनंद के उपन्यास में नीरव संतुष्टि । प्रसन्नता क्या है ? हँसी, खुशी,हर्ष और आनंद का एक सरस , समृद्ध और शाश्वत संवाद। अक्षरा तृष्णाओं का शमन नहीं  वरन इनका सचेष्ट निर्झर वमन है। जीवन के प्रवाह का ठहराव नहीं, वरण स्थिरता में अविरल जीवन धारा है। यह गंतव्य नहीं वरन एक यात्रा है। यह दृश्य नहीं , कदाचित एक दर्शन है।

"किसी की ज़मीन, किसी का आकाश"

चांद-तारों की ज़मीन, आकाश होता है। और पेड़ों का आसमान, ज़मीन होती है। गौर करें तो पेड़ उगते हैं, ज़मीन से,  और चांद के उगने को आसमान होता है। कोई ताकता है ज़मीन से, आसमान को, तो कोई झांकता है आसमान से ज़मीन को। धरती समेटे है जीवन की संभावनाएं , तो आकाश जीवन का विस्तार लिए बैठा है। देखिए कई बार ,गौर से हर शख्स को, जाने कौन क्या कुछ, भरे बैठा है ? कहीं किसी की खामोशी में, छिपा शोर है, तो किसी की हँसी में, कोई दर्द बैठा है। हर वजूद में भरी है , कई कहानियां, सुन सके वो, जो सुनने को तैयार बैठा है।

ईश्वर के मन का - "एक आत्मीय संवाद ईश्वर से"

ईश्वर को याद सभी करते हैं, कोई चाहता नहीं कि ईश्वर भी कभी उसे याद कर ले। भगवान से प्यार सभी करते हैं, कोई चाहता नहीं भगवान का प्यारा होना। सभी मांगते हैं ईश्वर से अपने मन का, अर्पण भी करते हैं कुछ अपने ही मन का। कोई मांगता नहीं ईश्वर से खुद के लिए ईश्वर के मन का। कोई भगवान से कभी नहीं पूछता, कि उसको भी कुछ चाहिए क्या? कुछ तो चाहता ही होगा ईश्वर हमसे, उस सर्वसमर्थ का कोई प्रयोजन तो होगा। हम ईश्वर की ही तो रचना हैं, ईश्वर का उद्देश्यहीन कृत्य या एक ईश्वरीय दुर्घटना मात्र तो नहीं हो सकते। यूं तो जानते हैं,हम ईश्वरीय रचनाएं होते हैं। दुर्घटनाएं, ईश्वरीय कृत्य नहीं हो सकतीं।