जय शङ्कर शान्त

"जय शङ्कर शान्त..." स्कन्द महापुराण के काशीखण्ड की अत्यंत पावन और प्रभावशाली महादेव स्तुति है। यह स्तुति बृहस्पति ऋषि द्वारा भगवान शिव की स्तुति में कही गई है।

इंटेरनेट पर अनुवाद नहीं उपलब्ध होने के कारण,  मैं संस्कृत के अपने सीमित  ज्ञान औऱ  इन्टरनेट की मदद से इसका भावानुवाद (हिंदी में) प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह शब्दशः न होकर भावार्थात्मक अनुवाद अराध्य शिव के चरणों में आपके लिए समर्पित है, 

श्लोक 1

जय शङ्कर शान्त शशाङ्करुचे रुचिरार्थद सर्वद सर्वशुचे।
शुचिदत्तगृहीतमहोपहते हृतभक्तजनोद्धततापतते ॥
जय + शङ्कर + शान्त + शशाङ्करुचे  
रुचिर + अर्थद + सर्वद + सर्वशुचे।  
शुचि + दत्त + गृहीत + महा + उपहते  
हृत + भक्तजन + उद्धत + तापतते ॥

भावार्थ:
हे शांत स्वभाव वाले, चंद्रमा के समान शीतल कांति वाले, सबको कल्याण देने वाले, पवित्रतम शिव! आप पवित्र भाव से समर्पित अर्घ्य को भी स्वीकार करते हैं और अपने भक्तों के संताप को हर लेते हैं। आपको नमन है।

श्लोक 2

ततसर्वहृदम्बर वरद नते नतवृजिनमहावनदाहकृते ।
कृतविविधचरित्रतनो सुतनो तनुविशिखविशोषणधैर्यनिधे ॥

तत् + सर्व + हृदम्बर + वरद + नते  
नत + व्रजिन + महा + वन + दाह + कृते।  
कृत + विविध + चरित्र + तनः + सुतनः  
तनु + विशिख + विशोषण + धैर्य + निधे ॥
भावार्थ:
हे सबके हृदय में विराजमान, वर देने वाले, पापों का दाह करने वाले प्रभो! आपने विविध रूपों में चरित्र को प्रकट किया है। आप कामदेव के बाण को भी सहन करने वाले धैर्यनिधि  हैं।

श्लोक 3

निधनादिविवर्जित कृतनतिकृत् कृतिविहितमनोरथपन्नगभृत् ।
नगभर्तृसुतार्पितवामवपुः स्ववपुः परिपूरितसर्वजगत् ॥

निधनादिविवर्जितः = निधन + आदि + विवर्जितः
कृतनतिकृत् = कृत + नति + कृत्
कृतिविहितमनोरथपन्नगभृत् = कृति + विहित + मनोरथ + पन्नग + भृत्
नगभर्तृसुतार्पितवामवपुः = नगभर्तृ + सुत + अर्पित + वाम + वपुः
स्ववपुः = स्व + वपुः
परिपूरितसर्वजगत् = परिपूरित + सर्व + जगत्

भावार्थ:
आप जन्म और मृत्यु से रहित हैं। आप प्रार्थनाओं को स्वीकार करने वाले, इच्छाएँ पूर्ण करने वाले हैं। सर्पों को धारण करने वाले हैं। आपने पर्वतराज की पुत्री (पार्वती) को अपने वाम अंग में स्थान दिया है और आपका स्वरूप सम्पूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त है।

श्लोक 4

त्रिजगन्मयरूप विरूप सुदृग् दृगुदञ्चन कुञ्चनकृतहुतभुक् ।
भव भूतपते प्रमथैकपते पतितेष्वपि दत्तकरप्रसृते ॥
त्रि + जगत् + मय + रूप + विरूप + सुदृक्  
दृक् + उदञ्चन + कुञ्चन + कृत + हुतभुक् ।  
भव + भूतपते + प्रमथ + एकपते  
पतितेषु + अपि + दत्त + कर + प्रसृते ॥
भावार्थ:
हे त्रिलोकी में व्याप्त, रूपातीत और पुनः दिव्य दृष्टिवाले प्रभो! आप अग्नि को प्रकट करने वाले हैं, भूतों के अधिपति हैं। आप गिर पड़े हुए जीवों को भी अपनी कृपामयी भुजाएं बढ़ाकर उठा लेते हैं।

श्लोक 5

प्रसृताखिलभूतलसंवरण प्रणवध्वनिसौधसुधांशुधर ।
धरराजकुमारिकया परया परितः परितुष्ट नतोऽस्मि शिव ॥
प्रसृत + अखिल + भूतल + संवरण  
प्रणव + ध्वनि + सौध + सुधांशु + धर ।  
धरराज + कुमारिकया + परया  
परितः + परितुष्टः + नतः + अस्मि + शिव ॥

भावार्थ:
हे सम्पूर्ण पृथ्वी को धारण करने वाले, ओंकार रूप, अमृत जैसे शांत स्वभाव वाले शिव! आप हिमालय पुत्री पार्वती के संग पूर्ण रूप से संतुष्ट हैं। मैं आपको साष्टांग प्रणाम करता हूँ।

श्लोक 6

शिव देव गिरीश महेश विभो विभवप्रद गिरिश शिवेश मृड।
मृडयोडुपतिध्र जगत् ‌न्त्रितयं कृतयन्त्रणभक्तिविघातकृताम् ॥

शिव + देव + गिरीश + महेश + विभो  
विभव + प्रद + गिरिश + शिवेश + मृड।  
मृडय + उदुपति + ध्र + जगत् + त्रितयम्  
कृत + यन्त्रण + भक्तिविघात + कृताम् ॥

भावार्थ:
हे शिव! हे देव, गिरीश, महेश, सर्वविभु! आप संपत्तियों को प्रदान करने वाले हैं। आप चंद्रमा को धारण करने वाले हैं। संसार के दुखों को समाप्त कर भक्तों के मार्ग में आने वाली बाधाओं को हर लेते हैं।

श्लोक 7

न कृतान्तत एष विभेमि हर प्रहराशु महाघममोघमते ।
न मतान्तरमन्यदवैमि शिवं शिवपादनतेः प्रणतोऽस्मि ततः ॥

न + कृतान्तत + एषः + विभेमि + हर  
प्रहर + आशु + महा + अघ + अमोघ + मते ।  
न + मतान्तरम् + अन्यत् + अवैमि + शिवम्  
शिव + पाद + नतेः + प्रणतः + अस्मि + ततः ॥
भावार्थ:
हे हर! हे यम (कृतान्त) के भी भय को हरने वाले! हे महान और अमोघ बुद्धि वाले प्रभो! मुझे किसी और मत या देवता में आस्था नहीं है। मैं शिव के अतिरिक्त कोई दूसरा मत या सत्य नहीं जानता, और उन्हीं के चरणों में समर्पित हूँ।


श्लोक 8

विततेऽत्र जगत्यखिलेऽघहरं हरतोषणमेव परं गुणवत् ।
गुणहीनमहीनमहावलयं प्रलयान्तकमीश नतोऽस्मि ततः ॥


भावार्थ:
इस व्यापक जगत में, पापों का हरण करने वाले, और अपने भक्तों को प्रसन्न करने वाले आप ही परम हैं। आप गुणवानों को भी और गुणहीनों को भी समान भाव से स्वीकार करते हैं। आप ही प्रलय के अंत में संहार करने वाले प्रभु हैं — मैं आपको नमन करता हूँ।


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श्लोक 9–10 (फलश्रुति)

इति स्तुत्वा महादेवं विररामाङ्गिरः सुतः ।
व्यतरच्च महेशानः स्तुत्या तुष्टो वरान् बहून् ॥

बृहता तपसाऽनेन बृहतां पतिरेध्यहो।
नाम्ना बृहस्पतिरिति ग्रहेष्वर्यो भव द्विज ॥

भावार्थ:
इस प्रकार अंगिरा ऋषि के पुत्र (बृहस्पति) ने महादेव की स्तुति की। भगवान शिव प्रसन्न होकर उन्हें अनेक वरदान प्रदान करते हैं। वे कहते हैं — “तप के प्रभाव से तुम बृहस्पति नाम से प्रसिद्ध होओ और ग्रहों में श्रेष्ठ बनो।”

श्लोक 11–15 (स्तोत्र के लाभ)

अस्य स्तोत्रस्य पठनादपि वागुदियाच्च यम्। 
तस्य स्यात् संस्कृता वाणी त्रिभिर्वषैस्त्रिकालतः ॥ 

 अस्य स्तोत्रस्य पठनान्नियतं मम संनिधौ। 
न दुर्वृत्तौ प्रवृत्तिः स्यादविवेकवतां नृणाम् ॥ 

अदः स्तोत्रं पठञ्जन्तुर्जातु पीडां ग्रहोद्भवाम्। 
न प्राप्स्यति ततो जप्यमिदं स्तोत्रं ममाग्रतः ॥ 

 नित्यं प्रातः समुत्थाय यः पठिष्यति मानवः । 
इमां स्तुतिं हरिष्येऽहं तस्य बाधाः सुदारुणाः ॥ 

 त्वत्प्रतिष्ठितलिङ्गस्य पूजां कृत्वा प्रयत्नतः । 
इमां स्तुतिमधीयानो मनोवाञ्छामवाप्स्यति ॥ 

भावार्थ 
जो इस स्तुति का पाठ करता है, उसकी वाणी शुद्ध और संस्कृतिपूर्ण हो जाती है।

त्रिकाल संध्या में तीन वर्षों तक इसका पाठ करने से वाणी में अपूर्व सामर्थ्य आ जाती है।

जो व्यक्ति इसका पाठ करता है, वह अविवेक और दुष्कर्मों से दूर रहता है।

जो ग्रहजनित पीड़ा से पीड़ित हो, वह इस स्तुति का जप करे तो उसे राहत मिलेगी।

जो मनुष्य प्रतिदिन प्रातः उठकर इसका पाठ करता है, उसकी कठिन से कठिन बाधाएं भी शिव हर लेते हैं।

शिवलिंग की पूजा कर यह स्तुति पढ़ने वाला व्यक्ति अपनी मनोवांछा को अवश्य प्राप्त करता है।

समापन

॥ इति श्रीस्कन्दमहापुराणे काशीखण्डे महादेवस्तुतिः सम्पूर्णा ॥


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