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Showing posts from August, 2025

A Morning Diary — In Search of the Polestar of the Soul

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  At the edge of night, when a restless evening,entangled in the rush and dilemas of the day, knocks at the door, the hours of darkness often feel heavy. Perhaps, in the quiet anticipation of dawn, we fade in to sleep  under the flickering lanterns of hope. only to awaken sooner than expected. It is 3:27 a.m. a profound silence  prevails outside. The wind is still, and from the gallery i  see a clear, unclouded sky. After sipping a little water, I find myself on the terrace. Somewhere in the distance, a cricket keeps vigil with me. A bat glides above, carrying the weight of night’s riddles as it returns to rest. The moon is absent tonight. The stars scatter their magic across the sky. In the east, Venus, the morning star, outshines them all. Above it, Jupiter glows faintly yet clearly, nestled in Gemini. Further right, towards the northeast, Sagittarius rides his horse, gleaming in splendour. And yet, beneath this crystal sky, the inner space of my mind rem...

मन के ध्रुवतारे को जोहती — एक सुबह की डायरी

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रात की दहलीज़ पर, जब दिन की भागदौड़ और उलझनों में लिपटी कोई बेचैन शाम दस्तक देती है,तो रातें मुश्किल लगती हैं। शायद नई सुबह के इंतज़ार में आशाओं के दीपक तले हम सो जाते हैं,और नींद भी शायद जल्दी ही खुल जाती है। सुबह के 3:27 बजे हैं और नींद खुल गई है। बाहर एक नीरव शांति है,हवा शांत है, गैलरी से नीरभ्र आकाश दिख रहा है।थोड़ा पानी पीकर छत पर आ गया हूँ।कहीं दूर कोई झिंगुर मेरे साथ जाग रहा है, एक चमगादड़ भी मेरे ठीक ऊपर से रात की  उलझने लिए सोने जा रहा है l आज चाँद ग़ायब है और तारे अपनी जादुई चमक बिखेर रहे हैं।पूरब में भोर का तारा—शुक्र—सबसे ज़्यादा चमक रहा है।उसके ठीक ऊपर बृहस्पति, मिथुन की गोद में,थोड़ी मद्धम किंतु स्पष्ट रोशनी बिखेर रहा है।दाईं ओर, उत्तर-पूर्व में कहीं अपने घोड़े पर सवार धनु पूरी गरिमा के साथ दमक रहा है। इस निर्मेघ आकाश के नीचे मेरे मन का व्योम बादलों से भरा है;और कुछ किंकर्तव्यविमूढ़ता लिए मेरा मन, इसी में कहीं अपना ध्रुवतारा, अपनी दिशा, खोज रहा है। जितना भी पढ़ूँ, लिखूँ, पूछूँ, जानूँ, समझूँ, सीखूँ, अनुभव जुटाऊँ; बस यही समझ आता है कि अभी स्पष्टता नहीं आई ह...

“सुबह की डायरी”-बचपन, सुबह, शून्यता और जिज्ञासा

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AC के कवर और नीचे  नामदेव भाई के झूले  के शेड पर बरसती बूँदों की टिप-टिप, हवा से खिड़की के पास आम के पेड़ के पत्तों की सरसराहट… के  बीच 4:20 पर नींद खुली। जागकर बिस्तर पर बैठा हूँ — दोनों कोहनियाँ घुटनों पर टिकी हुईं हैं और ठुड्डी दोनों हथेलियों पर। कोई विचार मन में उलझा-अटका  सा था। ख़ैर, उठता हूँ। पाँव की उंगलियाँ, उनके जोड़ और एड़ी क्रमशः फर्श को छू चुके हैं।बाहर आज हवा और बारिश की सरसराहट के अलावा कोई स्वर नहीं है। कुछ देर तक ध्यान-प्रेरित शून्यता की पूर्णतः असफल कोशिश की। फिर एक बात याद आई — कल अपने पुराने मित्र की साढ़े तीन माह की बच्ची “श्रीजा” को वीडियो कॉल पर देख रहा था।वह हिलते हुए परदे को देखकर खुश हो रही थी,  मित्र की उंगली को चबाकर और चूसकर भी देख रही थी। सोच पाया कि बच्चे curious, observant और aware तो होते हैं — पर informed नहीं।लेकिन  हमारे सन्दर्भ में  “informed होने का preconceived notion”  ही हमारी जिज्ञासा और जागरूकता को कम कर देता है। सोचते-सोचते 5:30 बज चुके हैं। अब हवा और बारिश थम चुकी है, और सारे पक्षी — कौवा, कोयल, बु...

सुबह की डायरी — पतंजलि की ओर

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कल की व्यस्तता और भागदौड़ से हुई थकान के बाद रात्री के लगभग बारह बजे नींद ने अपने आगोश में ले लिया था। सुबह 4:10 पर आँख खुली — थोड़ा-सा आलस्य था, पर बड़ी बहन के पंचकर्म हेतु पतंजलि पहुँचना था, सो जागना ही विकल्प था। पूरब की गैलरी से देखा तो आसमान बादलों से भरा था। दक्षिण-पूर्व में कोई खंजन(Grey wagtail) सुबह का राग आलाप रहा था। उत्तर-पूर्व से कोई सातभैया(Jungle babbler)दो-तीन बार बोला और शायद आलस में फिर सो गया। दक्षिण-पश्चिम से एक कौआ भी आवाज़ दे कर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा था। गुनगुना पानी और चाय तैयार करने के बाद जब सीढ़ियों से ऊपर गया, तो तेज़ हवा में गमलों के पौधे नाचते-झूमते हुए से लग रहे थे, और बड़े पेड़ की ऊपरी शाखाएँ  ऐसी लगा मानो जागने से पहले चेहरे पर हाथ फेर रही हों। चाँद अभी ऊपर ही था, पर थोड़ी देर में जैसे बादलों की ओट ले शरमा गया। एक तारा भी झिलमिला रहा था, फिर दूसरा भी, और चाँद के साथ मिलकर तीनों ने एक समद्विबाहु त्रिभुज बना लिया। तभी हरिद्वार से रूड़की  की ओर जाती किसी ट्रेन की आवाज़ सुनाई दी — यह मैं डॉपलर प्रभाव से बता पा रहा हूँ। हवा अब धीमी ह...

भोर का संगीत-सुबह की डायरी

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आज सुबह 5 बजकर 10 मिनट पर आँख खुली। लगभग पूरे हफ़्ते की बारिश के बाद आसमान साफ़ था। ठंडी, ताज़गी भरी हवा हलके-हलके गालों को छू रही थी, जैसे कोई शरारती बच्चा गुदगुदा रहा हो। कंपनी क्वार्टर की छत पर बैठकर गुनगुना पानी पीते हुए इस निर्दोष उषाकाल का साक्षात्कार कर रहा हूँ । क़रीब-क़रीब एक ही लय और आवृत्ति में उत्तर और दक्षिण दिशा के पेड़ों पर बैठी दो कोयलें आपस में कुछ संवाद या शायद प्रतिस्पर्धा कर रही थीं। उनकी "कूहू-कूहू" कभी 9 बार, कभी 10 और कभी 11–12 बार तक लगातार गूँज रही थी। आम तौर पर अकेली कोयल केवल 3–4 बार ही बोलती है। पास ही दक्षिण-पश्चिम के पीपल पर बैठा एक कौआ भी अपनी आवाज़ मिलाने की कोशिश कर रहा था, और पूरब दिशा से झींगुरों की अनवरत ध्वनि इस सुबह की रागिनी में एक और तार जोड़ रही थी। लगता है जैसे भोर के राग – भैरव, ललित और विभास – की प्रेरणा मनुष्यों ने इसी प्रकृति-संगीत से ली होगी। छोटी चिड़ियाँ भी उड़कर आने लगीं, मगर चुप थीं। ध्यान आया कि हर पक्षी के गाने का अपना समय होता है। जैसे खंजन पक्षी  (Grey wagtail) प्रातःकाल तीन बजे ही अपनी लंबी सीटी जैसी ध्वनि से जागरण करता ह...

"उषा के द्वार पर — सुबह की डायरी"

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सुबह साढ़े चार बजे आँख खुली। करीब साढ़े चार घंटे की नींद के बाद अच्छा लग रहा है। कंपनी क्वार्टर की खिड़की से बाहर का मौसम — बारिश की नमी और थोड़ी-सी ठंडक — इस उषाकाल को ऐसा बना रहे हैं कि सोए रहना मुश्किल है। कमरे में वामांगी सो रही हैं, और दो कमरों में मेरी दोनों बहनें। बड़ी बहन हाल ही में पंतजलि में रुमेटॉइड आर्थराइटिस के इलाज के लिए आई हैं। यह सोचते-सोचते पाँच मिनट निकल गए और मैं बिस्तर छोड़ चुका हूँ। इंडक्शन कुकटॉप पर 750 मिली पानी रख दिया है। ब्रश कर रहा हूँ और पूरब का दरवाज़ा खोल चुका हूँ। गरम पानी में काला नमक डालकर दरी पर बैठा, ठंडी हवा के साथ धीरे-धीरे पी रहा हूँ। अब तक पंद्रह मिनट बीत चुके हैं। मन में कोई विचार नहीं था। पीछे रसोई में एक कप चाय भी उबलने को रख दी थी। इलायची और दालचीनी कप में ही रख दी है ताकि छानने के बाद उसकी खुशबू धीरे-धीरे महसूस हो। इतने में प्राणायाम शुरू कर दिया था, और करीब बारह-तेरह मिनट बाद, यानी पाँच बजे तक, चाय लेकर गैलरी में अपनी कुर्सी पर बैठ चुका हूँ। पूरब से आती ठंडी हवा में अमरूद और तुलसी की भीनी-भीनी खुशबू है। पहली बारिश नहीं है, तो हवा में शैवाल ...

"स्वतंत्रता मुक्ति से बहुत दूर"।

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आगे बढ़ने से पहले एक विनम्र अनुस्मारक। जो कुछ आगे है, वह आपकी मान्यताओं को चुनौती दे सकता है, आपकी स्थापित धारणाओं को झकझोर सकता है, और आपको आपके आरामदायक स्थिति से बाहर खींच सकता है। मेरे प्रिय मित्र !  स्वतंत्रता ; तुम्हारी मुक्ति से बहुत दूर है। ये दोनों ही बिलकुल अलग बातें हैं. हम इस संसार में चलते हैं बंधे हुए— लोहे की जंजीरों से नहीं, बल्कि अदृश्य रस्सियों से, जो हमारी असुरक्षाओं, भय, महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं से बनी हैं। ये शक्तियाँ हमें लगातार चलाती रहती हैं, फिर भी पहिये पर हाथ अदृश्य रहता है— कोई उसे ईश्वर कहता है, कोई ब्रह्मांड, और कुछ, विकास। शायद जिसे हम “स्वयं” कहते हैं, वह केवल भ्रांत धारणाओं से अधिक कुछ नहीं। मुझे सत्य का ज्ञान नहीं। मैं केवल इतना जानता हूँ— हम न तो अपनी मान्यताएँ हैं, न अपने विचार, न अपनी धारणाएँ, और न ही अपनी भावनाएँ। एक मुक्त आत्मा दुर्लभ है— कस्तूरी की  गंध सा , विचारों में सब जानते हैं; व्यव्हार में शायद ही कोई  ; हवा में एक तरंग-वल्लिका-सी, सभी के कानों तक तो आती है, पर हृदय तक शायद ही कोई ले जा पाता है।

Freedom is far from Liberation

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Let me warn you before moving forward. What lies ahead may challenge your beliefs, unsettle your notions, and pull you out of comfort. My dear friend;  Freedom is far from liberation. We walk the world bound, not by chains of iron, but by the invisible ropes of our insecurities, fears, ambitions, and desires. These forces drive us relentlessly, yet the hand on the wheel remains unseen— some name it God, others the cosmos, and a few, evolution. Perhaps what we call “ourselves” is nothing more than misconceived notions. I do not know the truth. I only know this; Your-self is far your beliefs,  our ideas, our notions, or our emotions. A soul truly free is a rarity— a whisper in the air, heard by almost all, found by none.

काग़ज़ की धरती,और स्याही की नाव।

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मन का एक पाल, कलम की पतवार; जीवन के सागर में, काग़ज़ की धरती, और स्याही की नाव। कभी मिली धूप, कहीं मिली छाँव; चलता रहा नाविक— बिना कोई बस्ती, बिना कोई गाँव। चलते गए तब तक, जब तक चले पाँव; कभी मिली धूप, कहीं मिली छाँव। काग़ज़ की धरती, और स्याही की नाव।

प्रकृति के मौन अनुबंध — प्रजातियों और प्रकृति के बीच अनकही संधियाँ

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  हम कभी इतने बुद्धिमान नहीं हो सकते कि सब कुछ जान लें, और न ही इतने असंवेदनशील कि प्रकृति की उदारता को न पहचानें। हम कभी सच में नहीं जान पाएंगे कि कितने हाथों ने हमें सहारा दिया है—दिखाई देते हुए या अदृश्य—क्योंकि अनेक उदार आत्माएं अपनी उदारता को परोक्ष रखना ही पसंद करती हैं। जब भी हमें किसी की सहायता करने का अवसर मिले, हमें इसे धन्यवाद कहने का ही एक तरीका मानना चाहिए—न केवल उस व्यक्ति को, बल्कि उन सभी अदृश्य हांथों को, जिन्होंने कभी हमारी मदद की थी। यह कृतज्ञता केवल इस जीवन में मिले लोगों तक सीमित नहीं होनी चाहिए। जैसा कि वेदान्त (भगवद गीता, अध्याय 2, श्लोक 27: "जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च") और  जीन-पॉल सार्त्र भी  कहते हैं—मृत्यु हमारे जीवन का हमारे शरीर से परे विस्तार है। हम सच में कभी नहीं जान सकते कि कितनी आत्माएँ—विभिन्न प्रजातियों में, विभिन्न जन्मों में—हमारी इस अनवरत यात्रा में सहायक रही हैं। आज भी हम उन अनगिनत तरीकों से अनभिज्ञ हैं, जिनसे अन्य जीव-जन्तु चुपचाप हमारे जीवन को सम्भालते हैं। मनुष्य का अपने विकास के चरम पर पहुँचना ईश्वर, प्रकृति या...

Silent Covenants of Nature — Unspoken Pacts Between Species and Nature

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We can never be wise enough to know everything, nor should we be so insensitive as to overlook the generosity of nature. We will never truly know how many hands have lifted us in ways both seen and unseen, for many generous hearts prefer to hide their kindness. Whenever we can help someone, we must see it as our only way of saying thank you—not merely to them, but to the spirit of all those who have once helped us. This gratitude need not be confined to the people we meet in this lifetime. As vedantic wisdom (Bhaagvad Geeta, chaper-2, verse-27: "जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च"  )and  Jean-Paul Sartre reminds us, death is the extension of life beyond our body-selves. We cannot truly know how many souls—across species, across lifetimes—have shaped our journey. Even now, we remain largely unaware of the countless ways in which other living beings quietly support our survival. The attainment of the pinnacle of species development may be a blessing or a coincidence—...

The way we treat our champions decides whether we build a legacy or a cautionary tale.- The Tale of Two Horse Companies

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Once upon a time, there were two horse companies — Rustam and Chetak. Both owned horses of different ages and breeds, and both regularly participated in races. Their performance was average, neither spectacular nor poor. Determined to improve, both companies formed review and management teams to devise new strategies. What followed was a study in contrasts. Case A — Rustam Company After its review, Rustam Company decided: Participate in more races with their winning horses. Reduce the food budget for these winners, assuming their strength and past success would carry them through. Leave the non-performing horses idle, on a reduced diet, with no training or work. At first, the plan seemed to work — for a month and a half, they won more races than before. But soon, the winning horses grew tired, some fell ill, and performance plummeted. The review committee reported that costs were indeed going down, but so were the results. By the end of the year, Rustam Company lost every race. An inde...

हम अपने संसाधनों को कैसे साधते और सँभालते हैं, यही तय करता है कि हम विरासत रचेंगे या चेतावनी बनेंगे- दो घोड़ा कंपनियों की कहानी

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एक समय की बात है, दो घोड़ा कंपनियां थीं — रुस्तम और चेतक। दोनों के पास अलग-अलग उम्र और नस्ल के घोड़े थे, और दोनों ही दौड़ों में भाग लेते थे।प्रदर्शन औसत था — न बहुत अच्छा, न बहुत बुरा। प्रदर्शन को बेहतर बनाने के लिए, दोनों कंपनियों ने समीक्षा और प्रबंधन टीम बनाई और रणनीतियाँ तैयार कीं। इसके बाद जो हुआ, वह सोचने लायक है। प्रकरण A — रुस्तम कंपनी समीक्षा के बाद, रुस्तम कंपनी ने ये रणनीतियाँ अपनाईं — विजेता घोड़ों को लेकर और अधिक दौड़ों में भाग लेना। इन विजेता घोड़ों के चारे  का  बजट घटाना, यह सोचकर कि वे मजबूत हैं और अपने दम पर संभाल लेंगे। जो घोड़े अच्छा प्रदर्शन नहीं कर रहे थे, उन्हें वैसे ही छोड़ देना — कम चारे और बिना किसी काम या प्रशिक्षण के। शुरुआत में योजना सफल लगने लगी — डेढ़ महीने तक कंपनी पहले से ज्यादा दौड़ें जीतती  रही । लेकिन धीरे-धीरे विजेता घोड़े थक गए, कुछ बीमार पड़ गए, और प्रदर्शन तेज़ी से गिरने लगा। समीक्षा समिति ने रिपोर्ट दी कि हालांकि   तीजे भी गिर रहे हैं लेकिन खर्चे भी कम  हो रहे हैं। एक साल के अंत तक, रुस्तम कंपनी सभी दौड़ें हार गई। एक ...

ढाई आखर प्रेम के – प्रेम की परिभाषा – भाग 1 (नेति - नेति से पूर्णता तक)

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अनाहत चक्र — जिसे हृदय चक्र भी कहा जाता है — हमारे शरीर के सात चक्रों में से चौथा चक्र है। यह चक्र न केवल शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ा है, बल्कि आत्मिक और भावनात्मक संतुलन का भी मूल आधार है lप्रेम, करुणा, क्षमा, स्वीकृति और संतुलन — ये सभी अनाहत चक्र के दिव्य गुण हैं l प्रेम की परिभाषा क्या है?  प्रेम की ना तो कोई परिधि होती है और ना ही कोई भाषा सो , परिभाषा की परिधि में बाँधने के लिए यह  बड़ा कठिन विषय है, किन्तु समझने या अनुभव के धरातल पर यह एक सूक्ष्म अनुभूति है। तभी शायद कबीर भी कहते हैं — "पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय। ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।" यह आलेख लिखने की प्रेरणा  एक वरिष्ठ मित्र के अमेरिका में किसी आध्यात्मिक व्याख्यान के दौरान, एक श्रोता के प्रश्न "प्रेम की परिभाषा क्या है?"  से मिली है।  मित्र ने यह प्रश्न साझा करके विचारों के सागर में यह मोती डाल दिया, और यह आलेख उससे उठी विचारों की तरंगित धाराएं हैं। यूँ तो प्रेम की कोई परिभाषा नहीं होती, न कोई लिपि, न कोई भाषा। प्रेम तो इन सबसे मुक्त और इनकी सीमाओं से परे भाव की वि...

Capability vs Identity

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We don’t actually need to solve problems, but ourselves. That’s where  the true solution begins. Doing or being capable of doing is great. But being — that is, identifying too closely with what we do — can quietly become detrimental. For instance, being good at problem-solving is admirable. But the moment we start seeing ourselves as the problem solver, we tether our identity to the presence of problems. We tie our sense of self to their existence. And without them, we feel lost, adrift, or in some kind of identity crisis. Much like a boat tied to a dock can't explore the vast ocean of life and experience, we too become stuck — anchored not by our potential, but by our labels. The sole purpose boat is accidentally defeated when anchored.  This is the trap, my friend: the ego seeks continuity and conformity, and it clings to the role, not just the action. The ‘problem solver’ then anxiously awaits the next crisis — not for the love of resolution, but to avoid the fear of purpos...