घर और दफ्तर
थकता है और थक कर सो जाता है वो हर दिन,
बिस्तर से उठ कर हर रोज़ अपने दफ्तर जाता है।
मंज़िल और उसका रास्ता मालूम है उसे, मगर,
पत्थरों से राह के, सफ़र में थोड़ा बिखर जाता है।
थोड़े बिखराव को पूरा समेटकर अगली सुबह,
कुछ और निखरता है, फिर उसी शहर जाता है।
नित कुछ पुरातन, कुछ नवीन होता है,
प्राचीन होने की इस स्वाभाविक यात्रा में,
सयास हर बार कुछ और अर्वाचीन होता है।
निरर्थक लगती इस रोजमर्रा की पुनरावृति में भी,
वो कुछ और सार्थक, कुछ और समीचीन होता है।
"Born free to roam the wild,
Chained by screens and tech so mild.
The woods call, but whispers sway,
And here I stay,
Resetting passwords every day."
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