वक्त , प्रेम और विज्ञान
लोग कहते हैं, वक्त कभी किसी का इंतजार नहीं करता। लेकिन वक्त थम भी जाता है, कभी-कभी पीछे भी भाग जाता है अतीत की स्मृतियों में और यूं ही कभी छलांग लगाकर आगे भी भाग जाता है भविष्य की कल्पनाओं में, मन के मनचले रथ पे सवार हो के। ये बड़ी सार्वभौमिक और स्वाभाविक, किंतु विरोधाभाषी घटना हो जाती है, जब हम मान लेते हैं कि वक्त किसी के लिए नहीं रुकता। फिर मुझे बाबा आइंस्टीन और संत रदरफोर्ड के क्वॉन्टम फिजिक्स की याद आती है कि शायद ये सब उन्होंने पहले ही देख लिया अपनी वेव-पार्टिकल ड्यूलिटी के सिद्धांतों में। जीवन केवल घड़ी की टिक-टिक नहीं है; यह हमारे अनुभवों, स्मृतियों और कल्पनाओं की तरंगों का अनवरत प्रवाह है।
प्रेम और विज्ञान, दोनों ही अपने चरम पर पहुँचकर शब्दों की सीमा को लांघ जाते हैं। प्रेम आंखों की भाषा बन जाता है। वह आंखों, स्पर्श, और मौन में स्वयं को प्रकट करता है। वहीं, विज्ञान अपने गहनतम स्तर पर सिर्फ गणितीय समीकरणों के माध्यम से अभिव्यक्त होता है।
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