जीवन -प्रकृति के संवाद में

जाने क्यूं लगता है जैसे, 

कोई था जो सर्वत्र था ।

जब आसक्ति हुई तो उसे ,

अग्नि का अग्निहोत्र किया। 

जब ठहराव की वृति हुई तो उसे, 

नदी का प्रवाह किया। 

किंकर्तव्यविमूढ़ता छाई तो, 

पवन से संवाद किया।

हृदय ने मुमूर्षा का अंगीकार किया तो, 

वसुधा से जिजीविषा का व्यवहार लिया।

जीवन के संघर्षों में जब धैर्य चुका तो , 

बीजों से संयम का संचार हुआ। 

निराशा और अक्षमताओं के तमस में, 

असंख्य तारों ने उम्मीद भरी। 

दिल छोटा हुआ जब कभी तो, 

चंद्रमा की पुनरावृति ने आशा दी। 

जब रास्ते खोने लगे तब, 

पर्वतों ने कदमों में स्थिरता का संचार किया। 

जाने क्यूं लगता है जैसे, 

कोई था जो सर्वत्र था उसके लिए।

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