मृगतृष्णा

एक ठेस लगी, कोई टीस जगी,

कुछ स्वप्न टूटे, एक मोह छूटा ।

प्रछन्न अंतस के आनन पर,

मृगतृष्णा से,कुछ स्वप्न जगे।

फिर मोह हुआ,एक जोग लगा,

एक होड़ लगी, एक दौड़ हुई,

वो भी सब के, संग दौड़ पड़ा ।

आनंद  थासफलता मे,

या आनंद ही सफलता  थी ?

ना  ये सब कुछ सोच सका,

उस जल्दी मे, बस दौड़ गया ।

सब पाने-करने की चाहत में,

जाने कितना कुछ छुट रहा,

कुछ सपनों को बुनने में,

जाने कितना कुछ टूट गया ?

घर का आंगन ,आँगन की तुलसी,

छप्पर की गौरैया,गौशाले की गाय,

सब काफी पहले ही छूट गए।

कभी ठहरें तो ,ये सोचेंगे कि, 

क्या खोया क्या  पाया है ?

सब था यथार्थ या बस माया थी?





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