क्रोध अवलोकन, मूल्यांकन एवं स्वाभाविक प्रबंधन

     



                                




  एक दिन एक बंद कारखाने में कहीं से एक सांप  घुस आया .  वहाँ अंधेरा था. अंधेरे में सांप किसी चीज़ से टकरा गया और थोड़ा ज़ख़्मी हो गया. फिर क्या सांप पर गुस्सा चढ़ गया और उसने अपना फन उठा कर उस चीज़ को डसने का प्रयास किया, जिससे वह टकराया था. इस प्रयास में वह अपना मुख भी ज़ख्मी कर बैठा क्योंकि वह चीज़ कुछ और नहीं बल्कि  आरी थी ।

गुस्से ने उसे जकड़ रखा था और उसका ख़ुद पर कोई काबू नहीं रह गया था. फिर  वह आरी से कसकर लिपट गया और दबाव बनाकर उसका दम घोंटने के प्रयास में लग गया,  आरी की तेज धार के उसका पूरा शरीर लहुलुहान हो गया।

अंततोगत्वा क्रोध पर कोई नियंत्रण न होने के कारण सांप ने अपने प्राण गंवा दिये थे।


क्रोध पर अपने  लिखने  की मेरी योग्यता बस इतनी है की मैंने क्रोध का अनुभव किया है और क्रोध से मैं हारा हूं कई बार और कुछ मौकों पर क्रोध का प्रबंधन भी कर पाया हूँ।  

क्रोध ! यूँ तो मात्र  ढ़ाई अक्षरों से बना एक छोटा सा शब्द है, मगर   गुरु कबीर की माने तो  सारे ग्रन्थ एक ओर और ढाई अक्षर  (प्रेम-ईर्ष्या, क्रोध-क्षमा , शान्ति-मुक्ति, जन्म -मृत्यु ,तृष्णा-तृप्ति, ,ब्रह्म -सृष्टि ,शब्द-अर्थ, इत्यादि ) एक ओर , अगर ये ढाई अक्षर नहीं समझे गए  तो हम जीवन  जीने की कला से चूक जाएंगे।

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय ।

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय ।।

क्रोध हमारे मन में उत्पन्न होने वाले कई भावों के जैसा ही  एक भाव  है । भाव कर्म -प्रतिकर्म  ( क्रिया -प्रतिक्रिया ) का जनक है , भाव की पुनरावृति स्वभाव  में परिणत  हो जाती है।  स्वाभाव हमारे  स्वाभाविक कर्म (क्रिया या प्रतिक्रिया )का जनक है।  बात यहीं खत्म नहीं होती स्वाभाव की पुनरावृति हमारे संस्कार बन जाती है जो हमसे हमारी अगली पीढ़ी और अगले जन्मों  तक संचारित हो सकती  है। क्रोध की निरंतर पुनरावृति इसे हमारा स्वभाव बनाने  लगती है तब समस्या शुरू होती है , क्रोध मन में उत्पन्न भाव न होकर मन की स्वाभाविक क्रिया या कर्म हो जाता है तो समस्या होती है और जब क्रोध संस्कार बन जाए तब तो इसका कुछ भी कर पाना संभव नहीं रह जाता। क्रोध एक समस्या है अगर हम इसके नियंत्रण में हैं, अगर यह हमारे नियंत्रण में है तो यह हमारे व्यक्तित्व को प्रखर करने का अवसर है।

क्रोध मन का एक सहज भाव है, इसका उन्मूलन या इससे  पूर्ण मुक्ति तो केवल मोक्ष  प्राप्ति के बाद ही संभव है , और  अगर मोक्ष प्राप्त हो जाए तो क्रोध ही क्यों  ,लोभ, काम (ईच्छा),मद (अभिमान),मत्सर (ईर्ष्या या  द्वेष ),भय , सुख, आश्चर्य इत्यादि भावों से भी मुक्ति हो जायेगी और शेष बचेगा अलौकिक(Transcendental)  परम संतोष ,आनंद , शान्ति ,समभाव या स्थिरप्रज्ञता और विशुद्ध प्रेम  । लेकिन इस भवलोक में रहते हुए मोक्ष के अलौकिक आनंद की प्राप्ति भी एक मोह है ,माया है, हम जैसे साधारण जन के लिए।  

हाँ! क्रोध का सजग  अवलोकन, मूल्यांकन एवं बिलकुल ही स्वाभाविक प्रबंधन संभव है लेकिन उससे पहले क्रोध को थोड़ा और समझने की आवश्यकता है।  

  हम , हमारा मन और मन में उत्पन्न होने वाले  भाव ये तीनों जब तक पृथक हैं , ये चिंता का विषय नहीं है। समस्या  तब होती  है जब, क्रोध  एक पृथक भाव नहीं रह जाता है और  हम , हमारा मन और उसमे उत्पन्न क्रोध सब  एकीभूत हो जाते हैं क्रोध हमारे मन पर और हमारा  मन हम  पर हावी हो जाता है तब हम क्रोध या यूँ कहें की क्रोध की प्रतिमा बन जाते हैं।  कुछ क्षणों के लिए हम, हम हमारा  मन  गौण  जाते हैं , हम अपने होश में नहीं रहते ,विवेक शुन्य हो जाता है और हम केवल क्रोध मात्र रह जाते हैं ।  

हममें  से कई लोगों ने नैतिक शिक्षा की  पुस्तकें अपने बचपन में पढ़ी होंगी , पढ़ी तो बचपन में थीं मगर उनकी सीख बड़ी गहरी थी कुछ तो हम बचपन  में  समझ सकते थे और कुछ अब ध्यान देकर पढ़ने  से सीख सकते हैं । क्रोध के प्रबंधन से पहले दो  कहानियों को देखते  हैं , उसके बाद उनके प्रत्यक्ष - परोक्ष सीख पर बात करेंगे। 

प्रथम कहानी

क गाँव में एक स्त्री रहा करती थी. वह स्वभाव से बहुत बहुत गुस्से वाली थी. गुस्सा उसकी नाक पर बैठा रहता था. छोटी-छोटे बात पर वह तुनक जाती और लोगों को भला-बुरा कह देती थी.आस-पड़ोस में रहने वाले लोग उससे परेशान थे और उससे बात करने से घबराते थे. घर कैसे अछूता रहता?  उसका गुस्सा घर पर कलह का कारण बन चुका था.उस स्त्री को अहसास था कि गुस्सा उसके लिए परेशानी का सबब बनता जा रहा है. अक्सर गुस्सा उतरने के बाद वह पछतावे की आग में जला करती थी. लेकिन गुस्सा नियंत्रण के बाहर होने के कारण स्वयं को लाचार पाती.एक दिन गाँव में एक महात्मा पधारे. उनकी कीर्ति जब स्त्री के कानों तक पहुँची, तो उसने निश्चय किया कि वह महात्मा जी से मिलकर अपने गुस्से को दूर करने का उपाय पूछेगी.वह महात्मा से मिलने पहुँची और प्रमाण कर बोली, “गुरूवर! मैं अपने गुस्से से परेशान हूँ. गुस्से पर काबू ही नहीं रख पाती. गुस्से में अक्सर लोगों को भला-बुरा कह जाती हूँ और बाद में पछताती हूँ. मेरे गुस्से के कारण सब मुझे नज़र अंदाज़ करने लगे हैं. इससे मैं बहुत दु:खी भी हूँ. मुझे कोई ऐसी दवा दीजिये कि मैं गुस्सा करना छोड़ दूं.”महात्मा ने उसे एक शीशी दी और बोले, “पुत्री, इस शीशी में क्रोध दूर करने की दवा है. अबसे जब भी तुम्हें क्रोध आये, इस शीशी से मुँह लगाकर दवा के कुछ घूंट पी कर मुँह में रखे रहना .”

स्त्री दवा पाकर बहुत ख़ुश हुई और महात्मा का धन्यवाद कर अपने घर लौट गई. उसके बाद उसे जब भी गुस्सा आता, वह शीशी से मुँह लगाकर दवा पी लेती. धीरे-धीरे उसका गुस्सा कम होने लगा.सात दिन बाद जब शीशी की दवा ख़त्म हो गई, तो वह फिर से महात्मा के पास पहुँची और बोली, “गुरूवर, आपने मुझे गजब की दवा दी है. पीते साथ ही गुस्सा छूमंतर हो जाता है. अब वह दवा ख़त्म हो गई है. कृपाकर मुझे उस दवा की एक शीशी और दे दीजिये.”महात्मा मुस्कुराते हुए बोले, “पुत्री, तुम्हें जानकार आश्चर्य होगा कि उस शीशी में कोई दवा नहीं थी. उसमें सादा पानी भरा हुआ था. क्रोध आने पर जब भी तुम उस शीशी से पानी पीती थी, तो शीशी मुँह में होने के कारण तुम कुछ बोल नहीं पाती थी. क्रोध दूर करने का उपाय बस अपना मुँह बंद कर लेना है. अबसे यही किया करो.” 

दूसरी   कहानी

एक गाँव में एक लड़का अपने माता-पिता के साथ रहता था. एकलौती संतान होने के कारण वह माता-पिता का बहुत लाड़ला था। उसके माता-पिता उसे चाहते तो बहुत थे, लेकिन उसकी एक आदत के कारण हमेशा परेशान रहते थे. वह लड़का बहुत क्रोधी स्वभाव का था।  उसे छोटी-छोटी बातों पर क्रोध आ जाता था और वह तैश में आकर लोगों को भला-बुरा कह देता था।  इसलिए पड़ोसी से लेकर स्कूल के दोस्तों तक ने उससे किनारा कर लिया था। माता-पिता ने उसे कई बार समझाया. लेकिन उसके स्वभाव में बदलाव लाने में असमर्थ रहे। एक दिन पिता को एक युक्ति सूझी और उसने लड़के को अपने पास बुलाया एक हथौड़ा और कीलों से भरी हुई थैली देते हुए पिता ने लड़के से कहा, “बेटा, अब से जब भी तुम्हें क्रोध आये, तुम इस थैले में से एक कील निकालना और हथौड़े की मदद से घर के सामने की दीवार पर ठोंक देना, यह तुम्हारा क्रोध शांत करने में मदद करेगा” लड़के को भी अपने दोस्तों का चले जाना बुरा लग रह था और वो अपनी क्रोध की समस्या से छुटकारा पाना चाहता था। लड़के ने पिता की बात मानकर वह थैला और हथौड़ा ले लिया

उसके बाद से जब भी उसे क्रोध आता, वह दौड़कर घर के सामने वाली दीवार तक जाता और थैले में से एक कील निकालकर उसे दीवार पर ठोंक देता। इस तरह पहले दिन उसने ४० कीलें दीवार पर ठोंकी। उसे थोड़ी-थोड़ी देर में क्रोध आ जाता था. इसलिए उसे बार-बार दीवार तक जाना पड़ता था और वहाँ कील ठोकनी पड़ती थी,  कुछ दिनों में वह इससे तंग आ गया और उसने तय किया कि वह अपने क्रोध पर नियंत्रण करने की कोशिश करेगा.

धीरे-धीरे उसने अपने क्रोध पर नियंत्रण करना प्रारंभ किया और दीवार पर ठुकने वाली  कीलों की संख्या कम होने लगी. ऐसा भी दिन आया, जब लड़के ने दीवार पर एक भी कील नहीं ठोकी, उसने अपने क्रोध पर  नियंत्रण करना  सीख लिया था। उसके बाद भी कुछ दिनों तक उसने खुद को परखा और जब उसे यकीन हो गया कि उसका क्रोध पूरी तरह से उसके नियंत्रण में है, तो वह अपने पिता के पास गया और बोला, “पिताजी! अब मुझे इस हथौड़े और कीलों की ज़रूरत नहीं है क्योंकि मैंने अपने क्रोध पर नियंत्रण करना सीख लिया है.” सुनकर पिता खुश हुआ और उससे हथौड़ा और कीलें वापस ले ली. अब उसने एक नया काम लड़के को दिया और कहा, “बेटा, अब से जब भी तुम अपने क्रोध पर काबू करो, तो जाकर दीवार में से खींचकर एक कील निकाल लेना.” । लड़का ऐसा ही करने लगा. हथौड़े से कीलें दीवार में ठोकने से कहीं ज्यादा मेहनत उसे कीलें निकालने में लगने लगी, लेकिन जैसे-तैसे उसने दीवार में से अधिकांश कीलें निकाल ली, फिर भी कुछ कीलें पूरी कोशिश करने के बाद भी वह निकाल नहीं सका।  

उसने पिता को जाकर सारी बात बताई. पिता ने उसकी प्रशंषा की और दीवार की ओर इशारा करते हुए उससे पूछा, “बताओ इस दीवार पर तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है?”

“मुझे कुछ छेद दिखाई पड़ रहे है पिताजी.” लड़के ने उत्तर दिया.

पिता ने उसे समझाया, “कील तुम्हारा वह क्रोध था, जिसे तुम कड़वे शब्द रूपी हथोड़े के द्वारा लोगों के ह्रदय में ठोक दिया करते थे. जैसा तुम देख रहे हो कि कील निकाल देने के बाद भी दीवार पर हुए छेद बरक़रार है और कुछ कीलें तो ऐसी भी हैं, जिसे तुम निकाल भी नहीं पाए हो, अब तुम चाहे कितनी भी कोशिश कर लो, ये दीवार पहले जैसी नहीं हो सकती ठीक उसी तरह क्रोध में शब्द रूपी बाण से लोगों को पहुँचाया गया आघात टीस बनकर उनके ह्रदय में रह जाता है और तमाम प्रयासों के बाद भी पूरी तरह से समाप्त नहीं होता. इसलिये क्षणिक आवेश में आकर गलत शब्दों का उपयोग कर दूसरों को चोट मत पहुँचाओ.” 

अब बात करतें है उस सीख की जो यहां परोक्ष है।  दोनों कहानियों  पे गौर करने से हम पाते हैं तो ये समझ आता है की क्रोध के नियंत्रण के लिए -

१. यह पहचानना और समझ पाना या इतनी चेतना का होना जरूरी है की हम  क्रोध के प्रभाव में हैं और इसका प्रबंधन आवश्यक है।  यह बोध क्रोध के घटित हो जाने के बाद भी हो तो कोई परेशानी नहीं है।  

२ अंग्रेजी भाषा  में  दर्शन शास्त्र का एक कुछ  शब्द है Mindfulness, Awareness and consciousness   वेदांत में इसे चेतना कहते हैं और आम बोलचाल की भाषा में इसे होश कहते  हैं।  हमें इतनी चेतना या होश होना जरूरी है की क्रोध के आने का हमें बोध हो और जबतक यह बोध, चेतना या होश शेष रहता है , हम, हमारा मन और क्रोध पृथक होते हैं और इसका प्रबंधन स्वतः निरंतर अभ्यास से किया जा सकता है।  इतनी चेतना या होश रखना  या इतना mindful या aware रहना ही क्रोध के आने जितना स्वाभाविक नहीं है इसके लिए  अभ्यास की जरूरत पड़ती है। हमें क्रोध को बस एक पृथक साक्षी के जैसे देखते रहना है और देखना है वो कैसे भी हमारे मन को अपने पूर्ण प्रभाव में न ले क्योकि ऐसा होने पर मन शीघ्र ही आपको अपने प्रभाव में ले लेगा और आप , हम , हमारा मन और क्रोध सब एकीभूत हो जाएंगे और हम मात्र क्रोध की कठपुतली बनकर रह जाएंगे।  यहाँ यह देखने, यानि क्रोध से मन को मुक्त रखने का मतलब बस यही है है की आप क्रोध में भी यह सोच रहे हो की आप क्रोध में हैं और आप जो भी कर रहे हैं या करना चाह रहें हैं उसको अपने विवेक से परख पा रहे हैं।  क्रोध और विवेक दोनों एक दुसरे के शत्रु हैं दोनों हमारे  मन में ही होते हैं बस जरूरत होती है यह बोध रखने की आपके पास विवेक है , बाकी काम आपका विवेक खुद ही कर लेगा।  क्रोध में आप मन में केवल ये भी दुहराते रहें की आपके पास विवेक और सोचने समझने की क्षमता है , बस क्रोध का प्रबंधन हो जाएगा।  बस बोध ये रखना है की हमें अपना ध्यान क्रोध की जगह विवेक पर रखना है और इसके लिए थोड़े अभ्यास की जरूरत होगी।  

क्रोध या विवेक के भाव में  जिसका भी आप ध्यान करेंगे वो और भी प्रबल होता चला जायेगा "करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान; रसरी आवत जात ते सिल पर परत निसान"  और  भाव से स्वभाव और स्वभाव से संस्कार की स्वाभाविक यात्रा में  विवेक या क्रोध हमारे संस्कार बन सकते हैं।  

अगर आप निरंतर अभ्यास से उस स्तर तक जागरूक हैं कि आपकी चेतना का स्तर आपको वस्तुस्थिति में एक चेतन और पृथक साक्षी के जैसे सर्वोत्तम समाधानों की पहचान, निर्णय और तदनुसार कार्य करने में सहायता करता है; तो आप खुद के रूप में नहीं रहते, आप सिर्फ एक चैतन्य अभिनेता बन जाते हैं।

हमारी क्रियाएँ एक परस्थितियों पे निर्भर एक साधारण प्रतिक्रिया की जगह संवेदनशील कर्म में परिणत हो जाती हैं जो बाहरी परिस्थितियों द्वारा उत्पन्न भ्रम से मुक्त होती हैं। हम अपने विवेक से निरपेक्ष कर्म करते हैं और क्रोध से सापेक्ष कर्म, प्रतिकर्म या प्रतिक्रिया करते हैं । कर्म में  नियंत्रण आपके पास होता है और प्रतिक्रिया में किसी और के पास, तो चुनाव हमारा है हमेशा, कि हम विवेक जनित कर्म करें या क्रोध जनित प्रतिकर्म।

कभी-कभी क्रोध केवल किसी संबंध विशेष में आपकी भूमिका या आपके किरदार के कारण होता है, यहाँ हमें सिर्फ अपने दृष्टिकोण को बदलने की आवश्यकता होती है। अपने आपको पिता, मां, भाई-बहन या पति-पत्नी की भूमिका के स्थान पर खुद को एक मित्र की भूमिका में रखने से वस्तुस्थिति में परिवर्तन हो सकता है । इससे पूरे परिदृश्य में बदलाव होगा। क्रोध की निष्फल प्रतिक्रिया का स्थान सहानुभूति, समर्थन और सहायता ले लेगी , जो स्थिति में उचित कर्म या समाधान होगा।

क्रोध पे कुछ धर्मग्रंथ क्या कहते हैं उसे नीचे लिखा है अगर आप धर्मग्रंथों के आलोक में आचरण में आस्था रखने वाले हैं तो आपके लिए।


                                                                गुरुग्रंथ साहब -


ਹੇ ਕਲਿ ਮੂਲ ਕ੍ਰੋਧੰ ਕਦੰਚ ਕਰੁਣਾ  ਉਪਰਜਤੇ 

Hae Kal Mool Krodhhan Kadhanch Karunaa N Ouparajathae ||

O anger, you are the root of conflict; compassion never rises up in you.

ਕਾਮੁ ਕ੍ਰੋਧੁ ਲੋਭੁ ਤਜਿ ਗਏ ਪਿਆਰੇ ਸਤਿਗੁਰ ਚਰਨੀ ਪਾਇ ॥੫॥

Kaam Krodhh Lobh Thaj Geae Piaarae Sathigur Charanee Paae ||5||

Lust, anger and greed left me, O Beloved, when I fell at the Feet of the True Guru. ||5||

                                                       रामचरितमानस सुंदरकांड -

* तब लगि हृदयँ बसत खल नाना। लोभ मोह मत्सर  मद माना॥

जब लगि उर न बसत रघुनाथा। धरें चाप सायक कटि भाथा॥1॥ 

भावार्थ:-लोभ, मोह, मत्सर (डाह), मद और मान आदि अनेकों दुष्ट तभी तक हृदय में बसते हैं, जब तक कि ईश्वर  हृदय में नहीं बसते॥

"ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते। संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।" (भगवद गीता, अध्याय 2, श्लोक 62)

"क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः। स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।" (भगवद गीता, अध्याय 2, श्लोक 63)

विषयों का चिन्तन करनेवाले मनुष्यकी उन विषयोंमें आसक्ति पैदा हो जाती है। आसक्तिसे कामना पैदा होती है। कामनासे क्रोध पैदा होता है। क्रोध होनेपर सम्मोह (मूढ़भाव) हो जाता है। सम्मोहसे स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति भ्रष्ट होनेपर बुद्धिका नाश हो जाता है। बुद्धिका नाश होनेपर मनुष्य का पतन हो जाता है।


कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्रयं त्यजेत।। 

त्रिविधं नरकसयेदँ  द्वारं नाशनमात्मनः।।गीता :अध्याय 16 श्लोक 21 

 स्वर्ग सुखरूप है? तो नरक दुखरूप। अत इसी जीवन में भी मनुष्य अपनी मनस्थिति में स्वर्ग और नरक का अनुभव कर सकता है। गीता में  श्री कृष्ण कहते हैं कि नरक के तीन द्वार हैं काम,क्रोध तथा लोभ। आत्मा को अधोगति में ले जाने वाले ये तीनों विकार हैं। काम, क्रोध व लोभ आत्मा का नाश कर देते हैं। इसलिए इन तीनों दोषों का समूल नाश कर देना चाहिए। 

भागवत पुराण 
एवं निर्जितषड्‌‌वर्गै: क्रियते भक्तिरीश्वरे ।
वासुदेवे भगवति यया संलभ्यते रति: ॥ 7. 7 . 33  ॥
  
 
शब्दार्थ
एवम्—इस प्रकार; निर्जित—दमन किया गया; षट्-वर्गै:—इन्द्रियों के छह लक्षणों (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद तथा मत्सर) से; क्रियते—की जाती है; भक्ति:—भक्ति; ईश्वरे—परम नियन्ता में; वासुदेवे—भगवान् वासुदेव में; भगवति—भगवान्; यया—जिससे; संलभ्यते—प्राप्त की जाती है; रति:—आसक्ति ।.
 
अनुवाद
 
 इन (उपर्युक्त) कार्यकलापों द्वारा मनुष्य शत्रुओं—काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, ईर्ष्या— के प्रभाव को दमन करने में समर्थ होता है और ऐसा कर लेने पर वह भगवान् की सेवा कर सकता है। इस प्रकार वह भगवान् की प्रेमाभक्ति को निश्चित रूप से प्राप्त कर लेता है।

                                                                 कुरान -

ٱلَّذِينَ يُنفِقُونَ فِى ٱلسَّرَّآءِ وَٱلضَّرَّآءِ وَٱلْكَـٰظِمِينَ ٱلْغَيْظَ وَٱلْعَافِينَ عَنِ ٱلنَّاسِ ۗ وَٱللَّهُ يُحِبُّ ٱلْمُحْسِنِينَ ١٣٤
˹They are˺ those who donate in prosperity and adversity, control their anger, and pardon others. And Allah loves the good-doers. । 3.134 surah Ali imran।

                                                                                बाइबल-

Psalm 37:8

"Refrain from anger, and forsake wrath! Fret not yourself; it tends only to evil."

Proverbs 14:29

"Whoever is slow to anger has great understanding, but he who has a hasty temper exalts folly."

Proverbs 15:1

"A soft answer turns away wrath, but a harsh word stirs up anger."


अगर मेरा यह लेख किसी एक व्यक्ति के लिए भी क्रोध के चेतन अवलोकन, मूल्यांकन या स्वाभाविक प्रबंधन उपयोगी हो पाता है, तो इस लेख को लिखने का उद्देश्य पूरा हो जाता है।

जीवन में भाव से स्वभाव और स्वभाव से संस्कार की इस यात्रा में सकारात्मक भावनाओं के बोधमय चयन के माध्यम से सकारात्मक चरित्र की रूपांतरण की इस आदर्श प्रतिष्ठा में आपका   में आपका समकालिक साथी,

अभय



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