दिवास्वप्न : एक जीवन संवाद !


सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और गजानंद माधव मुक्तबोधहिंदी साहित्य  में आधुनिक कविता के अग्रदूत माने जाते हैं।

आज मुझे मुक्तिबोध जी की एक पंक्ति याद आ रही है वो लिखते हैं। " जो आदमी आत्मा की आवाज कभी कभार सुन लिया करता है और उसे लिख कर छुट्टी पा लेता है लेखक हो जाता है। “ 

मुक्तिबोध जी के लेखक परिचय को मानूँ तो ,मेरा परिचय बस इतना है कि, मैं अभय कुमार,      हिंदी साहित्य का एक साधारण रचनाकार हूँ, और निरंतर अपनी रचनाओं के माध्यम से, प्रासंगिक बने रहने की कोशिश कर रहा हूँ।

इसी श्रृंखला में उत्तराखंड से ही हिंदी भाषा के सिद्ध हस्त लेखक शैलेश मटियानी जी लिखते हैं कि लेखक की शोभा इसी में है कि वह विचार किए जाने की स्थितियां संभव करे और उनपर विचार किया जाए।

आज की मेरी कविता का नायक हम सभी के भीतर बसे एक कर्मयोगी और प्रकृति प्रेमी का प्रतिबिंब है। वह यह विश्वास रखता है कि हमारा जीवन केवल खुद तक सीमित और पूरी तरह व्यक्तिगत मायनों में शायद ही कोई विशेष अर्थ रखता हो।  इसके विपरीत, हमारा जीवन तब सार्थक होता है जब हम अपने अस्तित्व की संकीर्ण सीमाओं को पार कर परिवार, समाज, संस्थान, राष्ट्र, मानवजाति, और प्रकृति के लिए कुछ उपयोगी और महत्वपूर्ण रचने का प्रयास करते हैं।

यह कविता  हमारे अस्तित्व के व्यक्ति-तत्व को इसके समष्टि-तत्व तक ले जाने, या इसकी व्यक्तिगत उपयोगिता को समावेशी और सर्वांगीण उपादेयता तक पहुंचाने की सतत, सचेतन और सचेष्ट यात्रा है, जिसमें हम प्रकृति के साथ सामंजस्य रखते हुए, जीवन के उतार-चढ़ावों के बीच संतुलन बनाकर, निरंतर एक समावेशी विकास का कार्य-कौशल सीखते हैं।

आइएइस यात्रा को ,मेरी आज की कविता जिसका  शीर्षक है "दिवास्वप्न   - एक जीवन संवाद" के माध्यम से महसूस करें। 

 'दिवास्वप्न'—          एक जीवन संवाद !

उसे सपने नहीं आते कभी,  

या शायद याद नहीं रख पाता है।

मगर दिवास्वप्न देखना और उनको

गढ़ना वो कभी छोड़ नहीं पाता है।

जीवन-सरिता में सुख-दुःख,

जय-पराजय और उपलब्धि-अनुपलब्धि

के दो किनारों के बीच,

संतोष से, जीवन निर्वहन की

 नौका खेता है।

कुछ अबूझ-सा है,

जिंदगी का सफर,

कुछ बूझ पाता है,

कुछ छोड़ देता है ।

राहे जिंदगी की जुस्तजू मे

कुछ हमसफ़र मिले हैं,

कई रहगुज़र मिले हैं।

किताब की आलमारियों से,

कुछ किताबें पढ़ी हैं,

कई झाँक रही हैं,

रूबरू होने को ।

नदियाँ, पहाड़, सूरज-चाँद,

सब बुलाते हैं उसे।

कोई उसके घर नहीं आता,

वो ही अपने एकाकी प्रेम में

बरबस चला जाता है बार-बार ।

हाँ, सूरज-चाँद खिड़की से

झाँकते हैं हर सुबह, हर रात,

जैसे ध्यान खींच बुलाते हैं उसे।

सोचता है, कभी बता दे कि

वो भी रह नहीं सकता इनके बिना।

मगर डरता है, कहीं शरमा के

खिड़की पे आना न छोड़ दें।

यूं ही देखे हैं,

कई वसन्त जीवन के,

नव वसन्तदस्तक दे रहा है,

और कुछ स्मृतियां,     विस्मृति के मेघ में

जाते हुए भी, वर्तमान के धरातल से,

भविष्य के क्षितिज  के पथ को ,

अवलोकित कर रहीं हैं।

प्रारम्भ से प्रारब्ध की अनवरत यात्रा में,

 कभी थक कर सोचता है

कुछ ठहरे, कुछ विश्राम करे,

मागर दिवास्वप्न देखना और उनको

गढ़ना वो कभी नहीं छोड़ पाता है।

अभी कई दिवास्वप्न देखने हैं,

उनको गढ़ने का उद्यम शेष है।

अभी कई दिवास्वप्न देखने हैं,

उनको गढ़ने का उद्यम शेष है।

जिंदगी  हैरान कर देने की हद  खूबसूरत  है और जब ईश्वर हमें अनुकंपित करे तो हमें वंचित लोगों का ध्यान भी  करना चाहिए और ईश्वर के प्रति कृतज्ञता भी रखनी चाहिए और जब वंचना का आभास हो तो संयम रखते हुए आगे बढ़ना  चाहिए।

इसी सन्दर्भ में एक एक अज्ञात रचनाकर की चार सुंदर पंक्तियाँ भी प्रस्तुत करना चाहूंगा।

हर किसी को चाँद नसीब  होता।  

हर किसी को सितारा नसीब नहीं होता। 

किसी के पैरों के नीचे बिछते हैं मखमल के गलीचे,

तो किसी को ओढ़ने को कफन तक नसीब नहीं होता।


और जब जब हमारी उपलब्धियां और सफलताएं हम पर हावी होने लगें तो कविवर गोपाल दास नीरज जी की ये पंक्तियां बड़ी सार्थक हो जाती हैं।

अंतिम घर संसार मेंहै सबका श्मशान ! 

फिर इस माटी महल परक्यों इतना अभिमान.!


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