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Showing posts from March, 2025

पथिक -Seeking Experiences, Contemplating Existence, & Embracing The Path of a Wanderer.

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हम में, तुम में, सब में, थोड़ा-बहुत हूँ, जीवन से मृत्यु के बंधनों के बीच, कायांतरण की इस अनवरत यात्रा में, निर्बंध मुमुक्षा का यात्री हूँ। अनिश्चितताओं के बीहड़ में, उम्मीदों की मशालें लिए, आशंकाओं और उम्मीदों के मध्य, संभावनाओं की पगडंडियों पर, दो-चार कदम चलता हुआ, एक पथिक हूँ। यह चलना हमेशा आगे बढ़ना नहीं होता। आगे जाने में एक दिशा होती है। इस बीहड़ में, हर कदम पर असंख्य दिशाएँ फूटती हैं, जैसे मन के आँगन में अनंत इच्छाएँ, कामनाएँ, आकांक्षाएँ, आशंकाएँ, और संभावनाएँ प्रस्फुटित होती हैं। मन की ये अंतहीन स्थितियाँ अनगिनत राहों का होना ही है, और अनगिनत राहों का होना दो पैरों और एक सिर के लिए दिशा न होने जैसा ही है— बेबस और बेचैन करने वाली, एक किंकर्तव्यविमूढ़ता लिए। तब इस पथिक का विवेक, अनिश्चितताओं के इस बीहड़ में, उम्मीदों की मशालें लिए, आशंकाओं और उम्मीदों के मध्य संभावनाओं के रथ का सारथी बनता है। सही-गलत का चुनाव करता है; मगर यह सही-गलत सार्वभौमिक या निरपेक्ष नहीं, वरन् पूर्णतः सापेक्ष होता है। यह चयन होता है— व्यक्तिगत; परिस्थितियों, अनुभवों, आकांक्षाओं, आत्मविश्वास, नैति...

अंतर्द्वंद्व

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केवल लिखने के लिए , लिखना चाहता हूँ। और बस जीवन के लिए, जीना चाहता हूं। कहानियां नहीं हैं मेरे पास, किन्तु कुछ सार्वभौम, रचना चाहता हूँ। कोई निश्चित गंतव्य नहीं है, मगर सब तक पहुंचना चाहता हूँ। अपने व्यक्ति को उसकी सम्भाव्य, समष्टि से मिलाना चाहता हूँ। दीपक या दिनकर नहीं हूँ,  लेकिन हैं, कुछ तीलियां मेरे पास। अपने अंधेरे को पार कर , सबके मन के दीयों की ओर, एक लौ बढ़ाना चाहता हूँ। कोई निश्चित सवाल नहीं है , बस कुछ लाजवाब ,लिखना चाहता हूँ। कोई मिसाल नहीं हूँ, बस कुछ बेमिसाल, लिखना चाहता हूँ। वसुधा के गर्भ से जैसे, अंगारों को हिम का आवरण तोड़, ज्वालामुखी बन,निकलना पड़ता है। अंतस में विचारों की ज्वाला सी है, न लिखूं ,तो बेचैनी सी होती है, और लिखूं तो विद्रोह होता है। उगाने में कागज़ पर, एक फूल गुलाब सा, कांटे भी उग आते हैं, सहज ही। संभव है, सब तक न पहुंचे, मेरे मन की सीपियों से, अंतर्द्वंद्व के ये मोती, मगर निरन्तर गढ़ रहा हूँ, मैं, कुछ टेढ़े - चिपटे मोती, की जब कोई ढूंढता आए , मेरे अंतर्द्वंद्वों में गढ़े मोतियों सा कुछ, तो कुछ मिल जाए उसे उसके मतलब का। जीवन सागर में, ...

नारी

ये झुकती नजर, ये लहराती जुल्फें, ये हया की फितरत, ये शर्माना तुम्हारा, सब ठीक, मगर तुम जरा, इठलाना भी,  इतराना भी, जमीं से जुड़ी रहना, मगर ख्वाबों के पंखों  को बचाए रखना,  उड़ना, और जाना वहां तक, जहां तक जाना चाहती हो, तुम। सब के लिए, सब कुछ करते हुए, खुद के लिए भी, कुछ - कुछ करती रहना। मत भूलना कि तुम भी तुम्हारी जिम्मेदारी हो, तुम्हें भी तुम्हारी, उतनी ही, या, उन सबसे ज्यादा जरूरत है। तुम सृजन की जननी हो, तुम ही परिवर्तन की , अक्षरा प्रेरणा हो। अपने सपनों के,  गगनचुंबी प्रसादों को गढ़ती जाना। उन्हें हौसलों की उड़ान देना। जब लगे कि रिवाजों - दस्तूरों, और जिम्मेदारियों की बेड़ियां , तुम्हें कस चुकीं हैं, दौड़ना मुमकिन ना हो, तब चलना,  हिलने की कोशिश करना, मगर,रुकना मत , जब कुछ भी , सरल ना हो,तब भी,  तुम सहज रहना,  मत भूलना,तुम कौन हो? तुम सृजन की जननी हो, तुम ही परिवर्तन की प्रेरणा हो, तुम धैर्य धारणी, वसुंधरा हो, तुम आरंभ हो , तुम विस्तार भी, तुम संकल्प हो,  तुम सृजन की धार भी, तुम सनातन प्रवाहशील , जीवन सलिला हो, तुम नारी हो।