आदि शंकराचार्य रचित, "श्री विश्वनाथाष्टकम्"
गङ्गातरङ्गरमणीयजटाकलापं गौरीनिरन्तरविभूषितवामभागम् । नारायणप्रियमनङ्गमदापहारं वाराणसीपुरपतिं भज विश्वनाथम् ॥१॥
अर्थ: गङ्गा के तरंगों से अलंकृत रमणीय जटाओं वाले, वामभाग में आभूषणों से सुसज्जित माता गौरी (पार्वती) द्वारा निरंतर विभूषित , नारायण (भगवान विष्णु) को प्रिय, मनोहर अनङ्गरूप( काम देव जैसे सुंदर रूप)से युक्त और मद और आपहरण (मोह) से रहित वाराणसीपति, विश्वनाथ (भगवान शिव) को भजो॥१॥
स्वपद्मकोशविशोधिताखिलदैवतं स्वकारुण्यसिन्धुसुतारमणीरत्नयुक्तम् । प्रफुल्लनीलकुसुमाकरामुखाम्बुजं वाराणसीपुरपतिं भज विश्वनाथम् ॥२॥
अर्थ: जिनके पादकमल द्वारा समस्त देवता शुद्ध होते हैं, जो करुणा के सागर हैं और समुद्र से उत्पन्न अमृत रत्नों से युक्त हैं, जो सदा प्रफुल्लित और जो नील कमलों के फूलों से प्रकाशमान के चन्द्रमा के समान मुख वाले हैं हैं। उन वाराणसीपति, विश्वनाथ (भगवान शिव) को भजो॥२॥
अन्नामृतास्वादितविक्रमतुङ्गशिखाम् भ्रमच्छन्नस्मेरनिशाकरसुन्दरताम् । अन्दोलितानेत्रसुधामधुरिमाणहारं वाराणसीपुरपतिं भज विश्वनाथम् ॥३॥
अर्थ: जिनका मुकुट अन्न और अमृत से समरस है, जिनकी ऊँची जटा में सुन्दर भ्रमर छिपे हुए हैं, जिनके चन्द्रमा से चमकते हुए नेत्र में अमृत का मधुर सागर है, उन वाराणसीपति, विश्वनाथ (भगवान शिव) को भजो॥३॥
सर्वार्थसाधकचतुरः शिवः प्रसन्नः सर्वान्तरात्मा सुरवन्दितः शुभकरः । आर्तिहन्त्रीसर्वदयानिधिरविरतः वाराणसीपुरपतिं भज विश्वनाथम् ॥४॥
अर्थ: जो भक्त के सभी मनोरथों की पूर्ति के साधन हैं, जिनका मन हमेशा प्रसन्न रहता हैं, जो समस्त जगत् के कण -कण और सब जीवों की आत्मा में समाहित हैं, जो समस्त देवताओं के आराध्य हैं, जो सबका मंगल करते हैं; उन दयनिधि सभी आर्तों (दुखों) को दूर करने वाले विरक्त महादेव, जो दयासागर ह, वाराणसीपति, विश्वनाथ (भगवान शिव) को भजो॥४॥
जानामियोगिगणवृन्दवन्दितं च वाणीमणिप्राकरसुधाकरस्तुतं च । विश्वेश्वरं भज भवाब्धिपोतवारिधिं वाराणसीपुरपतिं भज विश्वनाथम् ॥५॥
जिनको मैं योगी गणों द्वारा वन्दित और वाणीमणि (सरस्वती) द्वारा स्तुतिकर जानता हूं, जो समस्त जगत् के ईश्वर हैं, जो इस भवसागर (धरती) से सबके तारणहार हैं, उन वाराणसीपति, विश्वनाथ (भगवान शिव) को भजो॥५॥
अनन्तकोटिब्रह्ममुखाद्यष्टसिद्धिदम् अनन्तजीवनाभिषेकमुद्धरणार्थम् । अनन्तपापपाशकृताञ्जलिस्फुरद्धृत- वाराणसीपुरपतिं भज विश्वनाथम् ॥६॥
अर्थ: जो अनन्त कोटि ब्रह्माण्डों को अपनी अष्ट सिद्धियों अपने मुख में रखते हैं, जिनका अभिषेक अनन्त जीवनचक्र के मोहपाश से उद्धार करने वाला है, जो समस्त पाप बंधनों को केवल आञ्जलि जोड़ने से मुक्त करने वाले भोले हैं । उन वाराणसीपति, विश्वनाथ (भगवान शिव) को भजो॥६॥
नीतांबुकुंडलगण्डमण्डितायां नारीविषाललोचनायां नमः। नीलकुञ्चितकेशविभूषणायां नागेन्द्रभूषणायां नमः॥७॥
अर्थ: हे जिनके कानों में नीली कुंडल और गले में मणिमण्डित माला हैं, जिनकी बड़ी और सुंदर आँखें हैं । जिनके केश केशव (कृष्ण) के रूप में नील कुंचित (नीले रंग की ) हैं, जिनके शरीर में सर्पराज (वासुकि) का आभूषण हैं, उन्हें नमस्कार॥७॥
वन्देऽनीशं चरणारविन्दनीलम् वन्देमहापुरुषजातविभावितम् । वन्देस्मरारिसेवितपादपङ्कजं वाराणसीपुरपतिं भज विश्वनाथम् ॥८॥
अर्थ: मैं नीलमणि से सज्जित चरणारविन्दों को वंदन करता हूं, मैं महापुरुष (भगवान शिव) अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ , मैं भक्तिभाव से स्मरणीय, शत्रुओं द्वारा भी आराध्य भगवन शिव के पादपद्म का वंदन करता हूं। आप भी उन वाराणसीपति, विश्वनाथ (भगवान शिव) को भजें ॥८॥
इति विश्वानाथाष्टकं सम्पूर्णम्॥
अर्थ: इस प्रकार विश्वानाथ अष्टकं सम्पूर्ण हुआ॥
यह स्तोत्र भगवान् काशी विश्वनाथ (महादेव शंकर) जी की आदि शंकराचार्य रचित विश्वनाथ भगवान शिव की स्तुति है, जो उनके दिव्य गुणों का स्मरण करने और आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए पढ़ी जाती है। इसका पाठ भक्ति और भावुकता से किया जाना चाहिए l
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