भोर का संगीत-सुबह की डायरी



आज सुबह 5 बजकर 10 मिनट पर आँख खुली। लगभग पूरे हफ़्ते की बारिश के बाद आसमान साफ़ था। ठंडी, ताज़गी भरी हवा हलके-हलके गालों को छू रही थी, जैसे कोई शरारती बच्चा गुदगुदा रहा हो। कंपनी क्वार्टर की छत पर बैठकर गुनगुना पानी पीते हुए इस निर्दोष उषाकाल का साक्षात्कार कर रहा हूँ ।

क़रीब-क़रीब एक ही लय और आवृत्ति में उत्तर और दक्षिण दिशा के पेड़ों पर बैठी दो कोयलें आपस में कुछ संवाद या शायद प्रतिस्पर्धा कर रही थीं। उनकी "कूहू-कूहू" कभी 9 बार, कभी 10 और कभी 11–12 बार तक लगातार गूँज रही थी। आम तौर पर अकेली कोयल केवल 3–4 बार ही बोलती है। पास ही दक्षिण-पश्चिम के पीपल पर बैठा एक कौआ भी अपनी आवाज़ मिलाने की कोशिश कर रहा था, और पूरब दिशा से झींगुरों की अनवरत ध्वनि इस सुबह की रागिनी में एक और तार जोड़ रही थी। लगता है जैसे भोर के राग – भैरव, ललित और विभास – की प्रेरणा मनुष्यों ने इसी प्रकृति-संगीत से ली होगी।

छोटी चिड़ियाँ भी उड़कर आने लगीं, मगर चुप थीं। ध्यान आया कि हर पक्षी के गाने का अपना समय होता है। जैसे खंजन पक्षी  (Grey wagtail) प्रातःकाल तीन बजे ही अपनी लंबी सीटी जैसी ध्वनि से जागरण करता है, जबकि दिन में उसकी चहचहाहट बेहद हल्की होती है। लगभग साढ़े चार बजे से अन्य पक्षियों की टोली भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराने लगती है। लगता है मानो प्रकृति का एक अदृश्य ऑर्केस्ट्रा सुबह के इस अल्पकालिक समय में ही अपना सामूहिक प्रदर्शन करता हो। मुर्गे की बाँग के साथ यह सामूहिक गान समाप्त हो जाता है, और फिर केवल संवादात्मक स्वर बचते हैं।

अब 6 बजकर 20 मिनट हो चुके हैं। सूरज बादलों से आँख-मिचौली खेलते हुए धीरे-धीरे चमक रहा है। आज दफ़्तर से छुट्टी है—पतंजलि और महंत इंद्रेश अस्पताल जाने का कार्यक्रम है। पूरब की गैलरी में तीन गिलहरियाँ, जिनमें से एक छोटी है, पाँच गौरैया और सतभैया बाबू (Jungle babbler / seven sisters ) भी अपनी उपस्थिति दर्ज कर रहे हैं—पत्नी श्री के द्वारा रखे बाजरे, फलों और  चावल-दाल पर अधिकार जताते हुए। घर में सब लोग तैयारियों में जुट गए हैं। मेरी उंगलियाँ भी अब विराम माँग रही हैं…

 19 अगस्त 2025



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