दिवास्वप्न : जीवन का संवाद
उसे सपने नहीं आते कभी,
या शायद याद नहीं रख पाता है।
मागर दिवास्वप्न देखना और उनको
गढ़ना वो कभी छोड़ नहीं पाता है।
जीवन-सरिता में सुख-दुःख,
जय-पराजय और प्राप्य- अप्राप्य के
दो किनारों के बीच,
संतोष से, निर्वहन की नौका खेता
है।
कुछ अबूझ-सा है,
जिंदगी का सफर,
कुछ बूझ पाता है,
कुछ छोड़ देता है ।
राहे जिंदगी की जुस्तजू मे
कुछ हमसफ़र मिले हैं,
कई रहगुज़र मिले हैं।
किताब की आलमारियों से,
कुछ किताबें पढ़ी हैं,
कई झाँक रही हैं,
रूबरू होने को ।
नदियाँ, पहाड़, सूरज-चाँद,
सब बुलाते हैं उसे।
कोई उसके घर नहीं आता,
वो ही अपने एकाकी प्रेम में
बरबस चला जाता है बार-बार ।
हाँ, सूरज-चाँद खिड़की से
झाँकते हैं हर सुबह, हर रात,
जैसे ध्यान खींच बुलाते हैं उसे।
सोचता है, कभी बता दे कि
वो भी रह नहीं सकता इनके बिना।
मगर डरता है, कहीं
खिड़की पे आना न छोड़ दें।
यूं ही देखे हैं,
कई वसन्त जीवन के,
नव वसन्त, दस्तक दे रहा
है,
और कुछ स्मृतियां, विस्मृति के मेघ में
जाते हुए भी, वर्तमान के धरातल से,
भविष्य के क्षितिज के पथ को ,
अवलोकित कर रहीं हैं।
अनवरत यात्रा की थकान से
सोचता है कुछ ठहरे कुछ विश्राम करे,
मागर दिवास्वप्न देखना और उनको
गढ़ना वो कभी नहीं छोड़ पाता है।
अभी कई दिवास्वप्न देखने हैं,
उनको गढ़ने का उद्यम शेष है।
Comments
Post a Comment