स्वर्ग या नरक ( वर्त्तमान समय में स्वर्ग और नर्क की अवधारणा की प्रासंगिकता)

 






एक   मित्र का बड़ा ही सहज  किन्तु गंभीर एवं प्रश्न प्राप्त हुआ है, प्रश्न है मुझे जन्नत  मिलेगी   या  दोज़ख  ? यह प्रश्न एक न एक बार हम सब के मन में जरूर आया होगा मगर एक निश्चित जबाब शायद ही मिला हो हमें कभी !   इस विषय  पर कुछ बोलने या लिखने के लिए सामान्य अवधारणा के स्वर्ग या नर्क दोनों जगहों का मेरा व्यक्तिगत अनुभव शुन्य है मगर वैदिक धर्म ,ईसाई धर्म,इस्लाम,गुरुग्रंथ साहब,बौद्ध धर्म और जैन धर्म के सभी धर्म ग्रंथो की जो भी थोड़ी बहुत मेरी समझ है ( यहाँ समझ से मेरा मतलब अन्धविश्वास या आस्था नहीं ,बल्कि तर्कसम्मत विचारों से है ) उसके आधार पर मेरे पास एक सार्वभौमिक निश्चित और सरल उत्तर है इस प्रश्न का, जो किसी भी वर्ग, सम्प्रदाय ,देशकाल(किसी काल विशेष में देश या समाज की दशा) परिस्थिति में सीमित नहीं हैं। 
लिखने को तो इस विषय पर एक पर कई ग्रन्थ लिखे जा चुके हैं मगर हम इसको थोड़ा सरल और सुग्राह्य रखने की कोशिश करते हैं।
इस विषय का विचार हम आस्तिक और नास्तिक दोनों पक्ष से करेंगे।

प्रथम पक्ष

1 . स्वर्ग या नरक की सामान्य अवधारणा इस जीवन के परे ( बाद) की है। इनमे से (स्वर्ग या नर्क) कुछ भी प्राप्त करने के लिए हमें इस जीवन और इस धरती से जो कुछ भी मिला है , जैसे सुख-दुःख ,भूख-प्यास, का अनुभव करने वाला नश्वर शरीर, किसी भी धर्म या धर्म ग्रंथों की दीक्षा या संस्कार जो हमें अपने माता पिता और हमें समाज विशेष से मिला है सब छोड़ना पड़ेगा। एक नवजात बालक के पास इनमे से सबसे कम चीजें होतीं हैं यानि माता पिता का दिया हुआ शरीर। हमारे पास कुछ है जो हमारा अपना था ,है और रहेगा तो वो है आपका चैतन्य, आपकी आत्मा ,आपकी रूह।

यहां ध्यान देने योग्य बात ये है कि सामान्य अवधारणा में बिना शरीर स्वर्ग पहुँच कर हम न तो अच्छे खाने और न ही हूरों या अप्सराओं के शारीरिक सुख का भ्रामक आनंद ले सकते हैं इन सब के लिए शरीर की जरूरत पड़ेगी। तो जिन अर्थो में हम लोग स्वर्ग या नरक की कामना या चिंता करते हैं मेरे हिसाब से ये हमें चिंता की कोई जरूरत नहीं है।
मगर मुझे नहीं लगता की अभी आप सहमत हुए होंगे क्योंकि वर्षों से हमने जो धर्म के ठेकेदारों से ,अपने समाज से और न जाने कहाँ कहाँ से जो तथाकथित धर्मज्ञान लिया है वो हमें ऐसा करने नहीं देगा। न जाने कब से हम सुनते आये है की आस्था में तर्क की कोई जगह नहीं होती , दीन में अक़्ल का दखल नहीं है, लॉजिक हैज नो प्लेस इन फेथ और न जाने क्या। लेकिन हर सच्ची और अचल आस्था के पीछे तर्क होता है अगर हमारे पास नहीं है तो हमें थोड़ा पढ़ने और उससे ज्यादा समझने की जरूरत है।अक्सर आपने देखा होगा जो व्यक्ति धार्मिक होता है (सच्चे अर्थों में) लोग उसे उसके लिए कहते हैं बड़ा ज्ञानी व्यक्ति हैं, और ज्ञान हमेशा तर्कसंगत होता है उसे अगर मैं या आप उसे तर्क की कसौटी पे कस नहीं पा रहे तो हमारा ज्ञान अधूरा है, और विश्वास केवल अंध विश्वास है, चाहे वह किसी धार्मिक पुस्तक पर हो, किसी तथाकथित अवतार पर हो या किसी पैगम्बर पर हो। अधूरा ज्ञान खतरनाक होता है ये बात तो शायद हम सब जानते हैं।
यहाँ एक बात ध्यान देने की है की धार्मिक (Spritual, simply having faith in natural laws and humanity is enough for being Dharmik) होने के लिए आस्तिक होने की कोई ज़रुरत नहीं है एक नास्तिक व्यक्ति भी धार्मिक हो सकता है।

द्वितीय पक्ष

अब जरा आस्था के साथ चलते हैं और उसे तर्क की कसौटी पे कसते हुए आगे बढ़ते हैं। अगर हमारी आस्था है,ईश्वर में, गुरुओं में या पैगम्बरों में, तो ईश्वर है यह एक अभिगृहित (axiom ) हो जाता है। और अगर ईश्वर है तो हमें स्वर्ग में जाने से उनके सानिध्य का सच्चा आनंद मिल सकता है , मगर ऐसे सज्जन से मैं आज तक नहीं मिला जो ईश्वर के पास रहने के लिए स्वर्ग की इच्छा रखते हों या अगर रखते भी होंगे तो ये बात मुझ से बोलना भूल गए होंगे। इस तृष्णा ,इच्छा या कामना ( भगवत्प्राप्ति (ईश्वर प्राप्ति )की कामना, इस्लाम में नफ़स अल मुत्मइना ) के अलावा तो कोई भी इच्छा या तृष्णा अनुचित (हराम, पाप,sin ) ही है।
अगर हम में  स्वर्ग जाने इच्छा केवल और केवल अपने आराध्य ,ईश्वर, अल्लाह , गॉड से मिलने या उनका सान्निध्य प्राप्त करने की इच्छा से है, तो हम 50 % स्वर्ग में आ चुके हैं, वहीं अगर ये इच्छा, अच्छे खाने, हूरों या अप्सराओं की इच्छा से है तो हम 50% नरक में जा चुके हैं। बचे 50% अभी भी हमारे हाँथ में हैं।

आइये अब ऊपर के दोनों मार्गों दोनों को सामानांतर रखते हुए एक सार्वभौमिक सिद्धांत की ढूंढने की कोशिश करते हैं जिससे धरती पर भी सशरीर हम सब स्वर्ग सा जीवन प्राप्त कर सकते हैंऔर जीवन के बाद भी  ईश्वरतत्त्व या स्वर्ग की प्राप्ति निश्चित कर सकते हैं ।
चुनौती यह है की मार्ग एक साथ तर्क संगत और आस्थासंगत होना चाहिए। धर्मग्रंथों की जो भी समझ मेरी है , उससे मैं आपको आस्वस्त करता हूँ की अब जो सिद्धांत हम देखेंगे वो हिन्दूइज्म ,इस्लाम , ईसाईयत , सिख,बौद्ध , जैन सभी धर्म में अनुकरणीय एवं सार्वभौमिक कल्याण का तर्कसंगत और अनुभूतिपरक सिद्धांत होगा।

धार्मिक रूप से जीने क्या मतलब है? इसका अर्थ है धर्म के कल्याणकारी (To All) और महत्वपूर्ण मार्गदर्शन का पालन करना, जो मनुष्य की सोच, अवस्था और व्यवहार के सभी पहलुओं के लिए प्राचीन धर्मसंगत आज्ञाओं का अनुसरण करते हैं ।

ऐसे व्यवहारपरक दस सिद्धांत हैं हैं जिनका लगभग सभी धर्मों और धर्मग्रंथों में उल्लेख हैं और वे तार्किकता की कसौटी पर खरे उतरते हैं। यहाँ पे केवल लेख को सरस और संक्षिप्त रखने के लिए मैं धर्मग्रंथों के सन्दर्भ को उद्धृत नहीं कर रहा हूँ आप खुद भी उन्हें ढूंढ सकते हैं या कमेंट में मुझसे भी पूछ सकते हैं।



संयम या उचित व्यवहार (दूसरों के साथ अपेक्षित पांच व्यवहार या यम )

  • अहिंसा -(Non-harming or non-violence in thought, word and deed it includes forgiveness compassion, politeness and patience)-संस्कृत में'अ'  उपसर्ग   का अर्थ होता है "नहीं", जबकि 'हिंसा' का अर्थ होता है "हानि करना, चोट पहुंचाना, मारना या हिंसा करना"। अहिंसा यहाँ  पर सभी सिद्धांतों  में प्रथम और  सबसे ऊँचा स्थान  रखती  है। अहिंसा , दुनिया में सम्पूर्ण प्रकृति के साथ  समरस रिश्ते बनाए रखने और आंतरिक जीवन में शांति स्थापित करने का कुंजी है। गहरे स्तर पर, अहिंसा एक चेतनागत  प्रक्रिया न होकर ,  निरंतर अभ्यास का एक स्वाभाविक प्रतिफल  है। अहिंसा के पथ पर  जैसे-जैसे हम  आगे बढ़ते  हैं , यह  हमें हमारी आत्मा की  सच्ची प्रकृति यानि चेतना को जागृत करता है एवं उसमे  शांतिपूर्ण और स्थायी रूप से हमें स्थिर  करता है; जीव हिंसा  से बचने की इच्छा उस जागृति का स्वतः प्रतिफल  होता है। जब हम  ये  महसूस करना शुरू करते हैं कि दूसरों की  आत्मा  और हमारी अपनी आत्मा एक समान है और सब इसी परमात्मा के प्रतिरूप हैं, तब हम औरों के सुख दुख को समझने लगते हैं और हम किसी भी प्राणी को कोई हानि नहीं पहुंचाना चाहते।

    इसके अभ्यास के लिए खुद और दूसरों के प्रति , दयालुता स्वीकृति और क्षमाशीलता का अभ्यास करने की जरूरत होती है। अगर हम स्वर्ग के लालच में या केवल अपने स्वाद के लिए किसी जीव की बलि, हत्या या कुर्बानी करते हैं तो भी आपको हमे आस्था और उसके आधारों पर पुनर्विचार करने की सख्त जरूरत है।  बलि या कुर्बानी करनी ही है तो हमे कुसंस्कारों का करना चाहिए  और अपने जीवन को समस्त विश्व के लिए कल्याणकारी बनाना चाहिए।

  • सत्य या सत्यनिष्ठा- (Truthfulness includes honesty and integrity)-संस्कृत में शब्द 'सत' का अर्थ होता है "वास्तविक " और 'सत्य' का अर्थ होता है  चीजों को वैसे ही देखना और प्रस्तुत  करना जैसे कि वे हैं, न कि वैसे , जैसे हम उन्हें देखना चाहते हैं ।

    हमें वास्तविकता के लिए स्वीकृति का भाव रखना चाहिए झूठ बोलने से बचते हुए दया, सहानुभूति और स्पष्टता के साथ व्यवहार करना चाहिए ।

  • अस्तेय या चोरी न करना-(Non-stealing)-संस्कृत में 'स्तेय' का अर्थ होता है "चोरी करना।" जब इसे उपसर्ग  'अ' के साथ जोड़ा जाता है, तो तीसरा सिद्धांत , 'अस्तेय' होता है: अर्थात  चोरी न करना। हम बहुधा  वास्तविक  चोरी करने से किसी पदार्थ या वस्तु का संदर्भ रखते हैं , लेकिन  वास्तविकता इससे अलग है  जानकारी और भावनात्मक अनुशासन ( इत्यादि  के सन्दर्भ में   अस्तेय  की सम्भावना अधिक  होती है ।

    चोरी करने की इच्छा असंतोष , अपूर्णता और ईर्ष्या के भाव से उत्पन्न होती है, इसका समाधान है कि हम हर मौके पर कुछ देने का अभ्यास करें। जरूरतमंदों को खाना दें; पैसे दें; समय दें। क्योंकि सम्पन्नता अंततः एक मानसिक अवस्था है, निःस्वार्थ देने के अभ्यास से हम धीरे-धीरे सम्पन्नता महसूस करते हैं और इसके माध्यम से, हमारी आंतरिक सम्पन्नता का अहसास हमें बाहरी सम्पन्नता अर्जित करने में भी सहायक होता है।

  • ब्रह्मचर्य या संयम रखना-(Celibacy or ‘Right use of energy or self control’ it )-ब्रह्मचर्य का शाब्दिक अनुवाद "ईश्वरीय -चेतना में चलना" है। व्यावहारिक रूप से,  ब्रह्मचर्य मन को अंदर की ओर मोड़ना है, इंद्रियों को संतुलित और नियंत्रित  करना  है, यह  आसक्तियों और इच्छाओं से मुक्ति प्रदान करता है। जब मन इंद्रियों के वश और बाह्य आसक्तियों से  मुक्त होता है, तो हमारा चैतन्य संवेदनाजन्य (शारीरिक)  सुखों की जगह आंतरिक आनंद से भर जाता  है।  

    हम जो पुस्तकें और मैगजीन पढ़ते हैं, जिन फिल्मों को देखते हैं, और जिन संगतियों में रहते हैं, इन सभी का विवेकपूर्ण चयन करने से हमें ऊर्जा की संवर्धन करने में मदद मिल सकती है । सभी संवेदनाजन्य (शारीरिक) गतिविधियों में माध्यम मार्गी (moderate) होना और अपने एक जीवनसाथी के प्रति समर्पण - यह ब्रह्मचर्य का मध्यम मार्ग है।

  • अपरिग्रह - (Non-greed or non-hoarding , Being benevolent/generous it also includes kindness and compassion )- ग्रह शब्द का अर्थ होता है "ग्रहण करना या रखना " और परि शब्द का अर्थ होता है "बाहरी वस्तु "। अपरिग्रह का शाब्दिक अनुवाद होता है "वस्तुओं को नहीं पकड़ना," या अनासक्तता। अपरिग्रह के बिना सांसारिक दुखों का अंत नहीं होता है, यह हमें उन वस्तुओं के साथ एक संतुलित संबंध स्थापित करने में मदद करता है जिन्हें हम "मेरा" कहते हैं।

    "दुनिया की सभी वस्तुएं हमारे उपयोग के लिए हैं, लेकिन हमें उनकी उपयोग से अधिक मात्रा को स्वामित्व में नहीं लेना चहिए।"

    "जो हम प्राप्त करना चाहते हैं उसे औरों के साथ बांटने का स्वभाव ही अपरिग्रह का सार है। यही अपरिग्रह है। "



                नियम जिनके लिए हमें प्रयत्न या कोशिश करते रहना चाहिए वो भी पांच हैं जो लगभग सभी धर्मों में  बताये गए हैं और तर्कसंगतता की कसौटी पर भी खरे उतरते हैं।

    उचित व्यवहार (स्वयं के लिए -नियम)

  • शौच या शुद्धता -यहां शौच का मतलब मन और शरीर की पवित्रता से होता है. यानि सिर्फ शरीर को साफ रखना ही शौच नहीं है बल्कि मन से गलत भावना को निकलना भी शौच है. शौच  में मन की अंत:शुद्धि, राग, द्वेष आदि का त्यागकर मन की वृत्तियों को निर्मल करने की प्रकिया होती है।
  • संतोष या संतुष्टि (contentment)-इसे समझना मुश्किल नहीं लेकिन निभाना जरूर मुश्किल है. कर्तव्य का पालन करते हुए जो प्राप्त हो उसमें संतुष्टि रखना या जो कुछ परमात्मा की कृपा से प्राप्त हो उसमें संतुष्टि रखना ही ‘संतोष’ है।
  • तप (Do your best)-तप या तपस्या का अर्थ होता है कि मन और शरीर को अनुशासित रखना. सुख-दुख, सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास जैसे द्वंद्वों को सहन करते हुए मन व शरीर की साधना भी तप है। तप शब्द में क्षमा या धैर्य, धृति या स्थिरता, दया या करुणा,अर्जवा या ईमानदारी, अल्पाहार या अल्प मात्रा में खाना ये सभी गुण अपेक्षित हैं।
  • स्वाध्याय -  स्वाध्याय में केवल धर्मग्रंथों का ही ज्ञान अर्जित करना नहीं बल्कि व्यक्ति को खुद के बारे में भी चिंतन करना जरूरी है. हमे सार्वभौमिक स्तर पर कल्याणकारी साहित्य एवं तकनीकी का अध्ययन एवं विकास करना चाहिए।  विचारों में शुद्धि और ज्ञान प्राप्ति के लिए विद्याभ्यास, धर्मशास्त्रो का अध्ययन, ज्ञानी और गुणी जनों (सज्जन) का सत्संग आदि भी स्वाध्याय है.
  • ईश्वर प्रणिधान (Ishvara Pranidhana)- ईश्वर के प्रति समर्पण  और आस्था रखना ही ईश्वर  प्रणिधान कहलाता है।   इस नियम का पालन करने के पीछे सबसे बड़ी वजह है मनुष्य का आंतरिक निर्माण  ताकि हम आत्मा और परमात्मा के सम्बन्ध  बेहतर तरीके से समझ  सकें। मन, वाणी और कर्म से ईश्वर की भक्ति के साथ उसके नाम, रूप, गुण, लीला आदि का श्रवण, कीर्तन, मनन करने जैसे समस्त कर्म ही 'ईश्वर प्रणिधान' है।  समस्त विश्व को ईश्वर का प्रतिरूप जानकर खुद को इसकी सेवा में लगाना भी ईश्वर प्राणिधान ही है ।

 यहाँ एक बात स्पष्ट कर दूँ की ईश्वर प्रणिधान करके व्यक्ति सिर्फ अपनी मदद करता है। हमारी ईश्वर भक्ति से ईश्वर को कोई ख़ुशी, या हमारे पूजा  न करने या ईश्वर को न मानने से ईश्वर को कोई क्रोध नहीं होता , जो सम्पूर्ण जगत को खुशियां और नेमतें देता है जो खुद सच्चिदानंद (सत्+चित्+आनंद ,शास्वत आनंद स्वरुप) है , वह अपनी ख़ुशी के लिए हम जैसे तुच्छ प्राणियों पे निर्भर तो कदाचित नहीं है। हमारे कर्म जरूर हमें सुख दुःख देते हैं क्योकि कर्म का नियम तो अपरिवर्तनीय अपरिहार्य और अकाट्य है।
हाँ ईश्वर की निःस्वार्थ भक्ति से हमारा अंतर्मन जरूर प्रसन्न होगा, और हम भी तो उसी ईश्वर का दर्पण हैं
जहां तक स्वर्ग या ईश्वर प्राप्ति का विषय है , ईश्वर तो सागर है ,सब धर्म नदियां है हम सब उस नदी की बूँदें हैं। आस्तिक लोग धर्म की नदी के साथ चल के ईश्वर रुपी सागर या स्वर्ग तक पहुँचेंगे और नास्तिक लोग वो बूँदें हैं जो नदी से भाप बनकर बीच रास्ते उड़ चले हैं और बादलों के जैसे स्वछन्द हैं ,मगर वो भी सागर तक पहुंचेंगे चाहे सीधे अनास्था के बादल साथ के साथ चलकर  ईश्वर रुपी सागर तक पहुंचेंगे या बीच में कभी बारिश के कारण दूसरी नदी में मिल कर (धर्मान्तरण) अन्ततोगत्त्वा उसी ईश्वर रुपी सागर में ही पहुँचेंगे। जैसे बादल में या नदी में रहने से जल का मूल स्वरुप नहीं बदलता वैसे आत्मा आस्तिक हो या नास्तिक रहती वो परमात्मा का ही अंश है।

विषयवस्तु से ना भटकते हुए ये की ईश्वर को मानने वाले के लिए ऊपर के दस सिद्धांत (दसांग या दसभुजी सिद्धांत ) हैं और एक नास्तिक व्यक्ति के लिए आखिरी दो सिद्धांतों की जरूरत नहीं हैं वो केवल आठ नियमो (अस्टांग मार्ग ) के साथ ही इस जीवन या जीवन के बाद स्वर्ग का सुख प्राप्त कर सकता है।
ये दस मौलिक नियम (नास्तिकता के लिए केवल आठ ) हैं, जिन्हें नकारात्मक विचारों को नियंत्रित करने में मदद मिलती है और स्वर्गतुल्य जीवन,मुक्ति ,मोक्ष या जीवनोपरांत स्वर्ग प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है। कुछ धर्म जैसे सिख ,जैन और बौद्ध धर्म जीवनोपरांत स्वर्ग की अवधारणा में विश्वास नहीं रखते ,ऐसी आस्था में भी यह मार्ग अनुकरणीय है।


ये सिद्धांत मन के स्वाभाविक दोषों को नियंत्रित करने और आत्मा को उसकी सच्ची निर्मल प्रकृति में स्थिर करने में सहायक होंगे ।

यम और नियमों का पालन करने के लिए साहस ,उद्यम और निष्ठा की भी जरूरत होती है। प्रश्न सिर्फ हमारे कर्मों का नहीं, बल्कि हमारे विचारों का भी है, क्योंकि विचारों के माध्यम से ही हम कर्मों में प्रवृत होते हैं।

अब प्रश्न रहता है कि वर्त्तमान समय में स्वर्ग और नर्क की अवधारणा की प्रासंगिकता क्या है ?

तो ,विभिन्न धार्मिक पवित्र पुस्तकों में पाए जाने वाले स्वर्ग और नरक के अवधारणा का मूल्य वर्तमान समाज के सुधार के लिए महत्वपूर्ण है। इससे आस्तिक  व्यक्तियों को ज़िम्मेदारी भावना और नैतिक मार्गदर्शन मिलता है, जो उन्हें धार्मिक और सार्वभौमिक कल्याण  को समर्पित व्यवहार  लिए प्रोत्साहित करता है।

स्वर्ग के विश्वास से लोगों में और सतकर्म , दया भाव, और दूसरों की सहायता करने की प्रेरणा होती है। इससे समुदाय में परस्पर सहयोग  , सहानुभूति और सामाजिक जिम्मेदारी की भावना पैदा होती है,।

दूसरी ओर, दुराचार के लिए दंड का भय, नृशंस व्यवहार से बचने के लिए एक चेतावनी  के रूप में कार्य करता है। यह अनैतिक व्यवहार से बचने की प्रेरणा  है और नैतिक सिद्धांतों का पालन करने को प्रोत्साहित करता है, जिससे अपराध, भ्रष्टाचार, और दूसरों को हानि पहुंचने का खतरा कम होता है।

इसके अलावा, परलोक की अवधारणा यह समझाती है कि पृथ्वी पर जीवन  एक अन्तिम अस्तित्व नहीं है, इससे  एक सामान्य मनुष्य को जीवन खोने  का मोह काम होता है और बुरे वक्त में भी नैतिक मूल्यों के अनुशरण करने की प्रेरणा मिलती है। 

समग्र रूप से, धार्मिक शिक्षाओं में स्वर्ग और नरक के माध्यम से व्यक्तियों को बेहतर होने  को प्रोत्साहित करते हैं, जिससे सहानुभूतिशील, न्यायसंगत, और जिम्मेदार समाज के निर्माण में मदद मिलती है। 

अन्त मे एक बार फिर कहूंगा;  जो हम प्राप्त करना चाहते हैं (भोजन, स्वास्थ्य, लंबा जीवन, धन, ख़ुशी, विद्या , स्वर्ग भी)उसे औरों के साथ बांटने का स्वभाव रखना चाहिए । यही स्वर्ग प्राप्ति का भी सार है। "

आशा है इस जवाब को आप तर्कसंगत पाएंगे अगर कुछ त्रुटि हुई होगी तो क्षमा  कीजियेगा और अपनी मुक्ति का मार्ग ईश्वर के आपको दिए  सबसे बड़े वरदान , जो की आपका विवेक और तर्कक्षमता है उसके आलोक में में ढूंढने का उद्यम ज़रूर कीजियेगा , और इस प्रयास में अपने मस्तिष्क को सारे पूर्वाग्रहों और पूर्वसंस्कारों से मुक्त करके खुले दिमाग के  साथ आगे बढियेगा।  हो सके तो कुछ ऐसा ढूंढने का यत्न  कीजिए जो इस धरा पे सब के लिए स्वर्ग ला  सके। 


आपकी  मोक्ष यात्रा या धरती पर स्वर्ग की इस आदर्श खोज में  में आपका समकालिक साथी।  

                                                                                                आपका अभय 



Comments

Popular posts from this blog

Which God or Religion is real (question which has caused millions to die)

प्राचीन सनातन भारतीय दर्शन और इसकी प्रासंगिकता

क्रोध अवलोकन, मूल्यांकन एवं स्वाभाविक प्रबंधन