क्या धर्म है
और रास्ता खोने लगे
तब निराशाओं को चीर कर
आशाओं का एक दीपक जलाना धर्म है !
जब मीलों लम्बा हो रास्ता
और मंजिल भी तुमको ना दिखे
मंजिल की चाह में हर सांस पे
तब एक कदम बढ़ना धर्म है
जब पत्थरों से राह के पैर तेरे छिल चुके हों
और राह मुस्किल सी लगे किसी चाह की
तब जिस चाह का हस्ती मिटाना नाम हो
उस चाह पर ख़ुद को मिटाना धर्म है!
जिस वक्त जीना गैर मुमकिन सा लगे
उया वक्त जीना फर्ज है इंसान का
लाजिम लहर के साथ है तब खेलना
जब हो समंदर पे नशा तूफ़ान का !
जब तूफान राहों में हो खड़ा
और रास्ता तेरा बदलने भी लगे
उस वक्त लड़कर तूफ़ान से
रूख़ उसका बदलना धर्म है !
जब दीपक जलाना चाह हो
और हवा ही साथ तेरा ना दे तब
जिस हवा का दीपक बुझाना काम हो
उस हवा में दीपक जलाना धर्म है !
written for the humans who sometimes get discouraged by some ups and downs of life
ReplyDelete.one thing i would like to mention here that
last two lines and four lines of third paragraph are taken from a poem of poet "Gopal Das Neeraj".