दिवास्वप्न : जीवन का संवाद
उसे सपने नहीं आते कभी , या शायद याद नहीं रख पाता है। मागर दिवास्वप्न देखना और उनको गढ़ना वो कभी छोड़ नहीं पाता है। जीवन-सरिता में सुख-दुःख , जय-पराजय और प्राप्य- अप्राप्य के दो किनारों के बीच , संतोष से , निर्वहन की नौका खेता है। कुछ अबूझ-सा है , जिंदगी का सफर , कुछ बूझ पाता है , कुछ छोड़ देता है । राहे जिंदगी की जुस्तजू मे कुछ हमसफ़र मिले हैं , कई रहगुज़र मिले हैं। किताब की आलमारियों से , कुछ किताबें पढ़ी हैं , कई झाँक रही हैं , रूबरू होने को । नदियाँ , पहाड़ , सूरज-चाँद , सब बुलाते हैं उसे। कोई उसके घर नहीं आता , वो ही अपने एकाकी प्रेम में बरबस चला जाता है बार-बार । हाँ , सूरज-चाँद खिड़की से झाँकते हैं हर सुबह , हर रात , जैसे ध्यान खींच बुलाते हैं उसे। सोचता है , कभी बता दे कि वो भी रह नहीं सकता इनके बिना। मगर डरता है , कहीं खिड़की पे आना न छोड़ दें। यूं ही देखे हैं , कई वसन्त जीवन के , नव वसन्त , दस्तक दे रहा है ...