होने–न–होने के मध्य
बहुधा काल के धरातल पर स्थिति और उपस्थिति के बीच गहरा अन्तर होता है। हमारी स्थिति भले ही वर्तमान में हो, पर उपस्थिति अक्सर भूत की स्मृतियों या भविष्य की आशंकाओं में भटकती रहती है। भावनाओं के अवचेतन धरातल पर एक सतत सचेतन दौड़ चलती रहती है कभी आगे की ओर भागते हुए, तो कभी पीछे लौटते हुए, सिर्फ अपने ही वर्तमान में पूरी तरह उपस्थित होने की। किन्तु केवल पहुँचने की इस दौड़ में भी या तो हम स्वयं पीछे छूट जाते हैं, या अपनी ही दिशा में कुछ अधिक आगे निकल जाते हैं। भावनाएँ भी काल के निरंतर गतिमान रथ पर सवार होती हैं, और हम किसी एक सापेक्ष धरातल पर रहते हुए निरपेक्ष स्थिति तक कभी पूर्णतः पहुँच नहीं पाते। इसी होने और न होने के मध्य अब मैं शून्य होना चाहता हूँ। आशंकाओं के अंशांक को अपने दाहिने और संभावनाओं के पूर्णांक को इस शून्य के बाएँ सहेजकर, अब मैं शून्य में ,परिमेय होना चाहता हूँ।