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Showing posts from February, 2025

जीवन जैसा कुछ

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अपने लिखने में...... ,  जीवन लिखना चाहता हूं। कभी पूरा जीवन नहीं लिख पाता, हां लिखने की इस कोशिश में , जीवन जैसा बहुत कुछ लिखता हूं। जीवन जीना चाहता हूं , और जीने की चाहत में , जीवन जैसा बहुत कुछ जी लेता हूं, कभी पूरा जीवन रूप नहीं घटता, एक अपूर्णता बनी रहती है शाश्वत सी। संतुलित करना चाहता हूँ सब कुछ, मगर, एक बात ठीक करूं, तो कई बातें बिगड़ जाती हैं। संतुलन की इस कोशिश में, संतुलन जैसा कुछ हो जाता है, एक अपूर्णता सी रहती है, और यह भी कुछ-कुछ  जीवन सा लिख गया शायद।।

"मैं जो हूँ मुझे वही रहना चाहिए" भवानी प्रसाद मिश्र

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"मैं जो हूँ मुझे वही रहना चाहिए" मैं जो हूँ; मुझे वही रहना चाहिए यानी;वन का वृक्ष,खेत की मेंड़; नदी कि लहर ,दूर का गीत l व्यतीत  वर्तमान में ,उपस्थितभविष्य में , मैं जो हूँ, मुझे वही रहना चाहिए तेज गर्मी, मूसलाधार बारिश, कड़ाके की सर्दी, खून की लाली डूब का हरापन ,फूल की ज़र्दी l मैं जो हूँ ; मुझे वही रहना चाहिए मुझे अपना होना, ठीक-ठाक सहना चाहिए तपना चाहिए, अगर लोहा हूँ, तो हल बनने के लिए; बीज हूँ, तो गड़ना चाहिए; फल बनने के लिए मैं जो हूँ, मुझे वही बनने चाहिए धारा हूँ अन्तःसलिला,तो मुझे कुएं के रूप में खनना चाहिए, ठीक ज़रूरतमंद हाथों में गान फैलाना चाहिए मुझे, अगर मैं आसमान हूँ मगर मैं,कब से ऐसा नहींकर रहा हूँ, जो हूँ, वही होने से डर रहा हूँ। भवानीप्रसाद मिश्र  

जीवन -प्रकृति के संवाद में

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जाने क्यूं लगता है जैसे,  कोई था जो सर्वत्र था । जब आसक्ति हुई तो उसे , अग्नि का अग्निहोत्र किया।  जब ठहराव की वृति हुई तो उसे,  नदी का प्रवाह किया।  किंकर्तव्यविमूढ़ता छाई तो,  पवन से संवाद किया। हृदय ने मुमूर्षा का अंगीकार किया तो,  वसुधा से जिजीविषा का व्यवहार लिया। जीवन के संघर्षों में जब धैर्य चुका तो ,  बीजों से संयम का संचार हुआ।  निराशा और अक्षमताओं के तमस में,  असंख्य तारों ने उम्मीद भरी।  दिल छोटा हुआ जब कभी तो,  चंद्रमा की पुनरावृति ने आशा दी।  जब रास्ते खोने लगे तब,  पर्वतों ने कदमों में स्थिरता का संचार किया।  जाने क्यूं लगता है जैसे,  कोई था जो सर्वत्र था उसके लिए।

मृगतृष्णा

एक  ठेस लगी ,  कोई टीस जगी , कुछ स्वप्न टूटे , एक मोह छूटा । प्रछन्न अंतस के आनन पर, मृगतृष्णा से , कुछ स्वप्न जगे। फिर मोह हुआ, एक जोग लगा, एक होड़ लगी,  एक दौड़ हुई , वो भी सब के , संग दौड़ पड़ा । आनंद  था ,  सफलता मे , या आनंद ही  सफलता  थी ? ना  ये सब  कुछ सोच सका, उस जल्दी मे , बस दौड़ गया । सब पाने - करने  की चाहत में , जाने कितना कुछ छुट रहा , कुछ सपनों को बुनने में , जाने कितना कुछ टूट गया ? घर का आंगन ,आँगन की तुलसी, छप्पर की गौरैया,गौशाले की गाय, सब काफी पहले ही छूट गए। कभी ठहरें तो ,ये सोचेंगे कि,  क्या खोया क्या  पाया है ? सब था यथार्थ या बस माया थी?